प्रेम-प्रश्नोत्तर-5: क्या आकर्षण ही प्रेम है?

प्रेम प्रश्नोत्तर की शृंखला में प्रश्न है कि क्या आकर्षण ही प्रेम है?

प्रेम पथ पर पहला पग रखते ही व्यक्ति के मन में सहज ही यह प्रश्न उठ जाता है कि क्या उसे होने वाले तीव्र आकर्षण का अनुभव ही प्रेम का यथार्थ अनुभव है? किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान, कार्य या विषय के प्रति जो आकर्षण उसे हुआ या होता है क्या वही प्रेम का शुद्ध रूप है? पिछले प्रसंगों से हमने इस तथ्य को तो जान ही लिया है कि प्रेम में आकर्षण शक्ति होती है जो किसी से भावपूर्ण सम्बन्ध जुड़ जाने के लिए भी आवश्यक है और भावनात्मक जुड़ाव को बनाए रखने के लिए भी। आकर्षण के इस प्रबल प्रभाव को देखते हुए इस प्रसंग में हम यह स्पष्ट कर लेना चाहते हैं कि क्या आकर्षण प्रेम का ही दूसरा नाम है? या ऐसा है कि प्रेम की परिभाषा, स्वरूप और महिमा आकर्षण से भी कहीं अधिक व्यापक है?

          आकर्षण के प्रभाव को स्वयं पर प्रत्यक्ष रूप से अनुभव करने वाला व्यक्ति जब प्रेम की पहली सीढ़ी पर पहुँचता है तब वह मानो यह घोषणा कर देता है कि आकर्षण के बिना प्रेम का अस्तित्व ही नहीं। आकर्षण न हो तो प्रेम कहाँ से हो और आकर्षण खत्म होते ही प्रेम में ठहरना संभव भी भला कैसे हो? किसी व्यक्ति, वस्तु, स्थान, कार्य या विषय से केवल सम्बन्ध जोड़ लेना ही तो प्रेम नहीं, उस सम्बन्ध का भाव, प्रकृति और प्रकार क्या है इसका अनुभव होना भी बहुत आवश्यक है। सम्बन्ध तो कई प्रकार के हो सकते हैं, हर सम्बन्ध तो भावपूर्ण नहीं होता, फिर भावनात्मक सम्बन्ध भी तरह-तरह के हो सकते हैं, हर भावनात्मक सम्बन्ध का अनुभव प्रेम की तरह निर्दोष रूप में हो जाए यह भी आवश्यक नहीं। यही कारण है कि प्रेम के तल पर जा पहुँचे व्यक्ति को आकर्षण और भावपूर्ण जुड़ाव दोनों का महत्व दिखने लगता है।

आकर्षण चाहे किसी भी व्यक्ति, वस्तु, स्थान, कार्य या विषय के प्रति हो उसका अनुभव करने वाले व्यक्ति को शुरुआती अनुभव से ही प्रेम का आभास होने लगता है। गहराई से देखने पर हम पाते हैं कि आकर्षण एक खिंचाव है, एक बल है जिसमें बुद्धि पक्ष के प्रभाव में इतनी अधिक झुकी हुई होती है कि उसे विपक्ष दिखाई ही नहीं देता। आकर्षण के प्रभाव में सामान्यतः तो बुद्धि को व्यापक चिंतन का अवसर ही नहीं मिलता और यदि मिलता भी है तो भी मन उस समग्र चिंतन पर ठहरता नहीं, आकर्षण के खिंचाव में वह तर्क-वितर्क पक्ष-विपक्ष के युग्मों को स्वीकारता ही नहीं। सारा ध्यान कुछ ही विशेषताओं तक केंद्रित रहता है तभी तो किसी एक ही गुण के प्रभाव को व्यक्ति इतनी गहराई तक अनुभव करता है। सौन्दर्य, कला, कौशल या भोलापन मानो आकर्षण की सामग्री हैं वे ऐसे गुण हैं जो व्यक्ति को स्वयं से बाँध लेते हैं।

अभी तक हुए संक्षिप्त चिंतन में हमने आकर्षण और प्रेम की निकटता को जाना लेकिन अभी यह स्पष्ट नहीं किया है कि आकर्षण और प्रेम अनुभव के किस पड़ाव पर पहुँच कर अलग-अलग दिखाई देते हैं, यह स्पष्ट होते ही हम स्थापित कर लेंगे कि आकर्षण और प्रेम क्या एक ही घटना के दो नाम हैं या दो अलग-अलग लेकिन परस्पर सहयोगी अनुभव हैं? सहज रूप से उत्तर तक पहुँचने के लिए हम आकर्षण के अनुभव का विश्लेषण करते हुए उसी दिशा में होने वाले प्रेम के अनुभव की प्रतीक्षा करेंगे ताकि हम विरोधाभास से भी बच सकें और स्पष्ट तथ्य तक भी पहुँच सकें, ऐसा करने से वे संभावनाएँ भी स्पष्ट हो जायेंगी जो आकर्षण और प्रेम के अनुभव के बीच आकर उन्हें अलग कर सकती हैं।       

आकर्षण प्रेम का प्रथम सूचक है। तीव्र आकर्षण का प्रबल अनुभव ही व्यक्ति की बुद्धि में यह संदेश प्रसारित करता है कि प्रेम अब निकट है, वह अब घटित होने को है। आकर्षण प्रेम का जाग्रत परिवेश है, प्रेम की प्रबल संभावना की परिस्थिति है, माहौल है। आकर्षण में उतरकर देखने पर प्रेम उपलब्ध हो गया ही जान पड़ता है, लेकिन प्रेम हृदय की स्थिर स्वीकृति का विषय है, हृदय को दृढ़ता से स्वीकार न होने पर आकर्षण शीघ्र ही मंद पड़ने लगता है और प्रेम के परिपक्व होने से पहले ही समाप्त हो जाता है। आकर्षण की परिस्थिति सदा नहीं बनी रहती, आकर्षण में जो त्वरित संवेग होता है वह अन्य परिस्थितियों के बदलते ही प्रभावित हो सकता है, इसलिए आकर्षण यदि प्रेम के परिपक्व होने तक यथावत् रहे तभी यह संभावना बनेगी कि वह व्यक्ति को प्रेम की स्थिरता तक ले जाए अन्यथा नहीं।

इसप्रकार हम पाते हैं कि आकर्षण वह स्फुरण है जो जुड़ाव की तीव्रता और प्रबलता देता है; आकर्षण जुड़ाव का त्वरित अनुभव है इसलिए उसका स्थिर होना स्वविरोधी हो जाता है, जो तीव्र और त्वरित है वह स्थिर कैसे होगा? आकर्षण स्थिर तभी होगा जब वह अपनी प्रकृति से, अपने मूल स्वभाव से परे चला जाए, अपने गुण से गुणातीत हो जाए, वह उस अवस्था तक पहुँच जाए जहाँ उसे परिस्थितियों का परिवर्तन भी प्रभावित न कर सके, क्यों न इस अवसर पर हम यह कल्पना करें कि आकर्षण को उस भाव में स्थिर हो जाना चाहिए जिसे हम प्रेम कहते हैं, प्रेम के स्थिर भाव में रुककर आकर्षण सदैव के लिए संरक्षित हो सकेगा, वह इतना ठहरा हुआ चलेगा कि कभी लुप्त न हो पाए और अपनी परिभाषा में भी सीमित न रह जाए, वह अपनी पहचान न खोए और प्रेम के स्थिर अनुभव से कभी भी अलग न हो।        

          प्रेम प्रश्नोत्तर की शृंखला के इस प्रसंग को नमन जिसने मुझ अल्पज्ञानी को यह अवसर दिया कि मेरी अल्पबुद्धि को आकर्षण के भाव से होते हुए प्रेम में ठहरने की पथयात्रा के अन्वेषण का सौभाग्य मिला। अपने अल्पज्ञान की सीमाओं को समझते हुए मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि सभी जिज्ञासुओं को प्रेम के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों का स्पष्टता से उत्तर मिले तथा उन्हें प्रेम का ऐसा अनुभव प्राप्त हो कि उनका जीवन प्रेममय हो जाए I

सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!

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