प्रेम-प्रश्नोत्तर-2:धर्म क्या है? क्या हो जब प्रेम ही धर्म हो? 

प्रेम प्रश्नोत्तर की शृंखला में प्रश्न है कि धर्म क्या है? क्या हो जब प्रेम ही धर्म हो?

हम चाहे किसी भी समाज में पैदा हुए हों या पले-बढ़े हों,अपनी समझ के विकास के साथ-साथ हमारे जीवन में कभी न कभी यह प्रश्न सामने अवश्य आता है कि “धर्म क्या है?” भले ही हम स्वयं धार्मिक हों या न हों, हम धर्म के पास से होकर गुजर रहे हों या उस पर चल रहे हों, हम अपना धर्म खोज रहे हों या किसी अन्य के धर्म की थाह लेने निकले हों। शायद मनुष्य की बुद्धि धर्म की ओर स्वभावतः ही आकर्षित हुई होगी, तभी तो मानव ने सभ्यता के विकास के समय से ही धर्म को अपना कर उसे धारण कर लिया था! तो धर्म जानने का विषय तो है ही, यदि ऐसा न होता तो मनुष्य की तर्क बुद्धि धर्म को  सदियों स्वीकार कैसे कर पाती? उसे पीढ़ियों तक आत्मसात कैसे कर पाती? और मनुष्य धर्म को अपने जीवन में इतना महत्व क्यों देता?

संसार के प्रत्येक संप्रदाय, पंथ या विचारधारा के मनीषियों ने धर्म की अपने-अपने प्रकार से विस्तृत व्याख्या दी है। अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, धर्म के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी की बुद्धि इसी निष्कर्ष पर पहुँची है कि धर्म धारणाओं और रीतियों का वह समूह है जो जीवन को व्यावहारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्वरूप देते हुए उसे सार्थक बनाता है। धर्म का सीधा सम्बन्ध परिस्थितियों से है, गहनता से देखने पर हम यह पाते हैं कि धर्म का मुख्य उद्देश्य जीवन की परिस्थितियों के साथ तालमेल बैठाना या उन पर विजय प्राप्त करना तो है ही, साथ ही जीवन को उसकी सार्थकता की ओर ले जाना भी है। यही तो कारण है कि भिन्न-भिन्न देश, काल और परिस्थिति में धर्म के भिन्न-भिन्न रूप विकसित हुये।

          धर्म की भी अपनी नियमावली होती है ठीक वैसे ही जैसे सामाजिक कानून या नीति शास्त्र की होती है तभी तो धर्म भी परिस्थितियों के अनुसार सही क्या है और गलत क्या इसे स्पष्टता से परिभाषित करता है। यह कहना भी तर्कसंगत ही है कि जीवन की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों में उचित और अनुचित को भली प्रकार समझते हुए ही धर्म का विकास हुआ होगा। क्या आपने भी कभी यह विचार किया है कि संसार के प्रत्येक धर्म में सामाजिक कानून तथा नीति शास्त्र की झलक क्यों मिलती है? इसका कारण यह है कि धर्म सामाजिक कानून और नीति शास्त्र का पूर्वज है, धर्म से ही वे विकसित हुए हैं तभी तो वे भी जीवन की सार्थकता को उतना ही महत्व देते हैं जितना संसार का प्रत्येक प्राचीन धर्म अपने उद्भव से ही देता आया है।

          अब एक प्रश्न स्वाभाविक ही हमारी तर्कशीलता के सामने प्रस्तुत हो सकता है कि “जब सामाजिक कानून तथा नीति शास्त्र हमारे जीवन को नियंत्रित कर ही सकते हैं तो फिर आधुनिक समाज को धर्म की आवश्यकता ही क्या है?” तो यह प्रश्न वैसा ही है जैसे कोई यह पूछे कि जब पेड़ उग ही गया है और इसमें तना, शाखाएँ, फूल और फल आ ही चुके हैं तो फिर जड़ की आवश्यकता ही क्या है? मनुष्य के जीवन की सार्थकता यदि सामाजिक व्यवहार तक ही सीमित होती तब तो उसके अंतिम लक्ष्य को पाने के लिए सामाजिक कानून तथा नीति शास्त्र ही पर्याप्त होते, लेकिन मानव जीवन सामाजिकता पर ही समाप्त नहीं हो जाता बल्कि आध्यात्मिकता के उत्कर्ष तक अपना भविष्य खोजता है। सामाजिक कानून तथा नीति शास्त्र सामाजिक परिप्रेक्ष्य तक ही सीमित हैं जबकि धर्म जीवन को शारीरिक चेतना से भी ऊपर का लक्ष्य देता है, वह जीवन को असीम अस्तित्व के स्थाई अनुभव तक ले जाता है।

          प्रेम-प्रश्नोत्तर के इस मुख्य प्रश्न का दूसरा भाग है कि “क्या हो जब प्रेम ही धर्म हो?” तो यह प्रश्न उठा ही क्यों? यह प्रश्न इसलिए उठ गया है क्योंकि संसार के प्रत्येक धर्म द्वारा प्रेम को अपनाए जाने के बाद भी और उसके महत्व को स्वीकारे जाने के बाद भी यह चुनौती बनी हुई है कि मनुष्य के व्यवहार में प्रेम को दृढ़ कैसे किया जाए और इसका कारण यह है कि धर्मों की धारणाओं और रीतियों में भिन्नताएँ हैं। भले ही प्रत्येक व्यक्ति को अपने धर्म का स्पष्टता से ज्ञान न हो लेकिन वह अपने धर्म को संसार का सर्वश्रेष्ठ धर्म ही मानता है। धर्म के ज्ञान का धुँधलापन ही धर्मों के टकराव का भी मुख्य कारण है और उनके बिखराव का भी। संसार के प्रत्येक धार्मिक व्यक्ति को धर्म की मूल पहचान को सदैव याद रखना चाहिए, उसे याद रखना चाहिए कि धर्म धारणाओं और रीतियों का वह समूह है जो जीवन को व्यावहारिक, सामाजिक और आध्यात्मिक स्वरूप देते हुए उसे सार्थक बनाता है।

मेरी यह धारणा है कि प्रेम को धर्म से अलग कर पाना असंभव है, यदि जीवन को एक शरीर मान लिया जाए तो धर्म उस शरीर का मस्तिष्क है और प्रेम उसका हृदय। हम यहाँ यह संभावना खोज रहे हैं कि “क्या हो जब प्रेम ही धर्म हो?” तो यह कोई बहुत कठिन कार्य नहीं कि ऐसा जीवन जी लिया जाए जिसे हम प्रेममय जीवन कहते हैं, मानव इतिहास में ऐसा जीवन अनेकों ने जिया है। यदि हम प्रेममय जीवन जीना चाहते हैं तो जी लेंगे, हमें कौन रोक लेगा? लेकिन क्या हम हृदय से ऐसा करना चाहते हैं? क्या हम प्रेम को अपना धर्म मान लेना चाहते भी हैं? यदि संसार के दस प्रतिशत लोगों ने भी आज प्रेम को धर्म के रूप में अपना लिया तो उसका प्रभाव यह होगा कि कुछ ही वर्षों में मानव समाज इस बात को प्रमाण सहित जान लेगा कि प्रेम जब धर्म बन जाता है तो मानव जीवन की सार्थकता स्वतः सिद्ध हो जाती है। प्रेम के प्रभाव में मानव मन निर्मल होकर सामाजिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से मानवता की बड़ी सहायता कर पाएगा।

अपने अल्पज्ञान की सीमाओं को समझते हुए मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि सभी जिज्ञासुओं को प्रेम के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों का स्पष्टता से उत्तर मिले तथा उन्हें प्रेम का ऐसा अनुभव प्राप्त हो कि उनका जीवन प्रेममय हो जाए I

सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!

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