प्रेम और जीवन का लक्ष्य
यदि कोई आपसे अभी पूछ ले कि आपके जीवन का क्या लक्ष्य है? तो क्या आप तत्काल स्पष्टता से बता देंगे कि आपको आपके जीवन का लक्ष्य ठीक से पता है? या फिर आप सोच में पड़ जाएँगे कि आपके जीवन का क्या लक्ष्य हो सकता है? बड़े सौभाग्यशाली होते हैं वे लोग जिन्हें समय रहते अपने जीवन का लक्ष्य प्राप्त हो जाता है। सामान्यतः तो व्यक्तियों को अपने जीवन का लक्ष्य ठीक से समझ में भी नहीं आता।
“किसी व्यक्ति के व्यक्तिगत जीवन का क्या लक्ष्य है?” और “मानव जीवन का क्या लक्ष्य है?”, इन दोनों प्रश्नों का कोई एक ही उत्तर मिलना बहुत कठिन सा लगता है। जीवन की परिस्थितियों को यदि सामने रख लिया जाए तो इस बात को स्वीकार कर लेना आसान नहीं कि सभी व्यक्तियों के जीवन का सदैव कोई एक लक्ष्य हो भी सकता है। जब जीवन अलग-अलग हैं, और जीवन की परिस्थितियाँ अलग-अलग हैं तो फिर जीवन के भिन्न-भिन्न पड़ावों पर अलग-अलग व्यक्तियों के लक्ष्य भी अलग-अलग ही होंगे यह तो हम सभी के अनुभव में सामान्यतः आता ही है, तो फिर आप पलट कर क्यों न पूछेंगे कि किसी के जीवन का क्या लक्ष्य है इस प्रश्न का आज दिया गया उत्तर क्या कुछ समय बाद भी प्रासंगिक रह पाएगा? आज का यह उत्तर कल परिस्थितियाँ बदलते ही किस काम आएगा? अब तो बड़ी दुविधा हो गई है, जीवन के लक्ष्य का प्रश्न तो अब ऐसा लग रहा है कि मानो यह प्रश्न स्वयं ही लक्ष्यहीन हो!
चलिए, जीवन के लक्ष्य की इस गले पड़ गई मुसीबत को सुलझाते हैं और जैसे काँटे से काँटा निकलता है वैसे ही कुछ समय के लिए धूल में पड़ा हुआ एक छोटा सा प्रश्न उठा लेते हैं यह सोच कर, कि हो सकता है यह प्रश्न ऐसा काँटा साबित हो कि जीवन के लक्ष्य की इस फाँस को सुगमता से निकाल बाहर करे और वह प्रश्न है कि “क्या आप अपने लिए और अपनों के लिए आज प्रेम को महत्वपूर्ण मानते हैं? क्या आप मानते हैं कि आपके बीते हुए जीवन में भी प्रेम महत्वपूर्ण था और कि आगे आने वाले जीवन के लिए भी यह उतना ही महत्व रखेगा?” यदि आपका उत्तर है कि “हाँ प्रेम महत्वपूर्ण था, है और रहेगा” तो जीवन के लक्ष्यों की प्रासंगिकता सदैव रहती है यह बात अनुभव के धरातल पर प्रमाणित की जा सकती है और मानव जीवन के कई लक्ष्यों में से प्रेम देना और प्रेम पाना भी एक स्वाभाविक लक्ष्य हो सकता है। प्रेममय जीवन में आइए हम प्रेम को यथार्थ रूप में जानें, प्रेम को जिएँ, प्रेम में झूमें, हम प्रेम में डूबें
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं
प्रसंग-1 और 2 में हमने जाना कि प्रेम क्या होता है, प्रेमी कैसा होता है और यह कि प्रेम क्यों और कितना महत्वपूर्ण है प्रसंग-3 में हमने प्रेम के रूपों को और प्रेम की सर्वोच्च अवस्था को जाना, इस प्रसंग में हम जीवन के लक्ष्य का विश्लेषण करेंगे और जानेंगे कि हमारे जीवन के लक्ष्यों में प्रेम का क्या स्थान है, प्रेम की क्या भूमिका है।
हमारी समझ में आए या न आए, लेकिन जीवन तो प्रारंभ हो ही जाता है, बदलता ही है और एक दिन थमता भी अवश्य ही है। जीवन हमारी समझ के लिए रुका नहीं रहता, इसका भी अपना एक लक्ष्य है जिसे यह प्राप्त करने की ओर चल पड़ता है। समझ तो बहुत बाद की बात है, बहुत बाद में विकसित होती है लेकिन जीवन तो देह के रूप लेने से पहले ही यात्रा पर निकल पड़ता है। गर्भ में पल रहे किसी बच्चे ने अभी जन्म भी नहीं लिया है, उसका शरीर अभी पूरी तरह विकसित भी नहीं हुआ है लेकिन उसका जीवन तो कब का प्रारंभ हो चुका है। तो इस जीवन का क्या लक्ष्य है जिसके लिए यह जीवन जीने वाले की समझ विकसित होने से पहले ही तत्पर है? सभी प्राणियों के जीवन के साथ यही तो होता है कि शरीर के विकसित होने से पहले ही, बुद्धि के विकास से बहुत पहले ही इसका कोई लक्ष्य तय हो जाता है। बड़ी मुसीबत हो रही है, हो भी क्यों ना, जीवन के लक्ष्य की दुविधा बढ़ती जो जा रही है!
जीवन के लक्ष्य का प्रश्न कोई साधारण प्रश्न नहीं है, इस प्रश्न के उत्तर की खोज में न जाने कितने ही विद्वानों ने मंथन किया है, अनेकों को तो जीवन भर इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिला और कुछ ने तो प्रयास करने के बाद यह ही घोषणा कर दी कि यह प्रश्न ही गलत है, वहीं दूसरी ओर, विभिन्न विषयों के अनेक विद्वानों द्वारा तरह-तरह से इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत किया गया। इस सम्बन्ध में वैज्ञानिकों के अपने तर्क हैं, दार्शनिकों के अपने, तथा धर्मशास्त्रियों और आध्यात्मिक विभूतियों के अपने अनुभव और मत हैं। लेकिन एक तथ्य पर लगभग सभी सहमत हैं और वह है कि पृथ्वी पर जन्म लेने वाले प्रत्येक जीवधारी को अपने जीवन को बनाए रखने के लिए प्रयास और संघर्ष करना ही पड़ता है। यही वह तथ्य है जिसमें जीवन का सबसे पहला और आधारभूत लक्ष्य छुपा हुआ है।
जीवन की निरन्तरता, उसे बनाए रखने के लिए प्रयास करना ही सभी के जीवन का प्राथमिक लक्ष्य है। जीवन के अस्तित्व में आते ही उसे यह लक्ष्य मिल गया था या ऐसे कहें कि यह लक्ष्य बना-बनाया ही जीवन को मिला है, शरीर और बुद्धि के परिपक्व होने से बहुत पहले से ही। उन जीव-जंतुओं के जीवन का भी यही प्राथमिक लक्ष्य है जिनमें समझ ही बहुत विकसित नहीं होती। यही कारण है कि बिना किसी उपकरण की सहायता के आँखों से दिखाई न देने वाला जीवाणु भी अपने जीवन को बनाए रखने के लिए प्रयास करता है, और बुद्धि विकसित न होने के बाद भी अपने जीवन के लिए संघर्ष भी करता है और संतानें भी उत्पन्न करता है, वह ऐसा मजे के लिए नहीं करता क्योंकि इतना तो उसे ज्ञान ही नहीं, और न ही उसमें इतनी बुद्धि ही है, वह तो अपने जन्मजात गुणों की वजह से ऐसा करता है, और यही सिद्धांत हम मनुष्यों को बनाने वाली जनन कोशिकाओं पर भी लागू होता है।
तो जीवन के लक्ष्य को लेकर अब हमारी उलझन कुछ कम हो चली है, लेकिन अभी मिटी नहीं है, और यह स्पष्ट होते ही कि जीवन का प्राथमिक और आधारभूत लक्ष्य तो सभी के लिए एक है और प्रकृति के द्वारा बना-बनाया ही है, कुछ लोग अब तर्क दे सकते हैं कि “जब जीवन का अपना स्वयंसिद्ध लक्ष्य है ही तो हम क्यों लक्ष्य की मुसीबत में उलझें? वह तो अपने आप बना ही हुआ है!”
जीवन के लक्ष्य की मुसीबत में उलझ कर यदि जीवन सुलझता है तो इसे तो जीवन का सौभाग्य ही समझिए। प्राप्ति के दृष्टिकोण से देखें तो जीवन लक्ष्यों की एक शृंखला है। एक लक्ष्य की प्राप्ति होते ही अगला लक्ष्य दिखाई देने लगता है, और इसमें प्रत्येक व्यक्ति का अपना-अपना दृष्टिकोण बड़ा महत्व रखता है। सामान्यतः हम अपने परिवार और समाज से ही लक्ष्य बनाना सीखते हैं, फिर हमारी अपनी आवश्यकताएँ हमें हमारे लक्ष्य दिखाती हैं। जैसी परिस्थितियाँ हमारे जीवन में आने लगती हैं वैसे ही हमारे लक्ष्य प्रभावित होने लगते हैं और बार-बार संशोधित होते हैं। लक्ष्यों का किसी एक ही दिशा में संशोधित होना बुरा नहीं है, बल्कि कई बार तो बहुत आवश्यक है लेकिन लक्ष्यों का बार-बार पूरी तरह बदल जाना प्रयासों के लिए अच्छा नहीं होता, वह भटकाव बन जाता है और मूल्यवान समय को नष्ट करने लगता है। हमें यह बात भी सदैव याद रखनी चाहिए कि प्रयासों और कर्तव्यों से भाग कर बनाया जाने वाला या बदला जाने वाला लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं होता।
राहें सब हैं जगत में चुन ले अपनी राह क्यूँ जग से भागा फिरे पढ़ तो अपनी चाह! -II प्रेम सारावली II
अपने जीवन के लक्ष्य को खोजते और स्पष्ट करते समय हमें स्वयं से बार-बार पूछना चाहिए कि “क्या यह लक्ष्य मैं प्राप्त कर सकता हूँ? क्या यह लक्ष्य मेरे जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है? क्या यह लक्ष्य मेरे जीवन का सबसे अच्छा लक्ष्य है?” यदि आपकी अंतरात्मा कहे कि “हाँ यह लक्ष्य मैं प्राप्त कर सकता हूँ, यह लक्ष्य मेरे जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य है और यह लक्ष्य मेरे जीवन का सबसे अच्छा लक्ष्य है” तो आपको बिना समय नष्ट किए उस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए दो बातों पर ध्यान देना चाहिए: पहली यह कि प्रकृति ने सभी प्राणियों को प्रयास और संघर्ष करने की जन्मजात क्षमता दी है तो उस क्षमता का भले ही आपको आभास न हो लेकिन वह आप में ही छुपी हूई है वह तब-तब प्रकट होती जाएगी जब-जब आप प्रयास और संघर्ष में जुटे होंगे। दूसरी बात यह कि किसी एक बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसी एक लक्ष्य की दिशा में कई छोटे-छोटे लक्ष्य खोज कर उन्हें क्रम से प्राप्त करने का प्रयास होना चाहिए।
जाने या अनजाने में सामान्यतः हम अपने जीवन का लक्ष्य अपनी तीन धारणाओं से प्रेरित होकर बनाते हैं। पहली सामान्य धारणा यह कि हमें लगता है कि हम उस लक्ष्य को प्राप्त कर सकते हैं। दूसरी सामान्य धारणा यह कि हम उस लक्ष्य को प्राप्त करके अपने और अपनों के जीवन को सम्पन्न एवं सुविधाजनक बना सकेंगे और तीसरी सामान्य धारणा यह कि हम उस लक्ष्य को प्राप्त करके अपनी सफलता और श्रेष्ठता को सिद्ध कर सकेंगे। हमारी पहली धारणा उस लक्ष्य के प्रति हमारे झुकाव के कारण बनी, हमारी दूसरी धारणा हमारे स्वयं के और हमारे अपनों के सुखों की खोज में बनी और हमारी तीसरी धारणा हमारे अहं को संतुष्ट करने के प्रयास में बनी।
तो हमने जाना कि अपनी-अपनी धारणाओं, परिस्थितियों तथा आवश्यकताओं के अनुसार व्यक्तियों के अपने-अपने लक्ष्य बनते जाते हैं। वे लोग जिन्हें अभी जीवन की प्राथमिक आवश्यकताओं को पूरा करना है और उनके पास अन्य लक्ष्यों के लिए अभी ना तो संसाधन उपलब्ध हैं और ना ही उनकी परिस्थितियाँ ऐसी हैं कि वे कुछ और सोच भी सकें तो प्राथमिक आवश्यकताओं की पूर्ति करना ही उनके जीवन का लक्ष्य होता है और यही उनके प्रयासों और संघर्ष की दिशा होती है। वे लोग जिनकी धारणा और परिस्थितियाँ उन्हें समाज की सेवा की ओर ले जाती हैं, उनका लक्ष्य समाजसेवा हो जाता है और इसी में उन्हें अपने जीवन की सार्थकता का बोध हो जाता है। वे लोग जिनकी धारणा एवं परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि उनकी अभिरूचि और कुशलता किसी कला में हो जाती है तो वे उसमें ही अपने जीवन का लक्ष्य और सार्थकता पाते हैं। वे लोग जिनकी धारणा एवं परिस्थितियाँ ऐसी होती हैं कि उन्हें प्रकृति तथा जीवन के रहस्यों और सिद्धांतों की खोज में ही अपने जीवन का लक्ष्य मिल जाता है तो वे लोग सच्चे अर्थों में खोजी, अन्वेषक, वैज्ञानिक या दार्शनिक हो जाते हैं।
वे व्यक्ति जिनकी धारणा और परिस्थितियाँ उन्हें यह निष्कर्ष दे देती हैं कि भौतिक सुखों की चाह का कोई अंत नहीं, और सुखों का पीछा करना जीवन का अंतिम लक्ष्य नहीं हो सकता तो उन व्यक्तियों का ध्येय जीवन के अंतिम सत्य को जानना और उस ज्ञान का व्यावहारिक अनुभव करना हो जाता है, ऐसे व्यक्ति साधक, तत्वज्ञानी और योगी हो जाते हैं। लेकिन जब हम महापुरुषों के जीवन की ओर देखते हैं तो हम पाते हैं कि उनकी धारणाएँ सामान्य धारणाओं जैसी नहीं होतीं, वे अलग होती हैं। उनमें जो लगन, जो प्रयास और जो उद्देश्य छुपे होते हैं वे असाधारण होते हैं, मानो वे लोग किसी और ही जगत में खोए रहते हों, चाहे वे दार्शनिक हों, वैज्ञानिक हों, समाजसेवी हों या तत्ववेत्ता योगी हों, वे अपने जीवन से महान सिद्ध हो जाते हैं। महान व्यक्तियों की यह विशेषता होती है कि वे अपने प्रयासों में समाज के हितों का विशेष ध्यान रखते हैं, वे सच्चाई के पक्षधर होते हैं और स्वभाव से सरल और प्रेमी होते हैं।
अल्पज्ञानी होकर मैं अपने हृदय की बात कहूँ तो मुझे महान लोगों की महानता को समझने में तो न जाने कितने जन्म लग जाएँगे लेकिन उनकी सीधी सच्ची सरल बातों की और उनके प्रेमी स्वभाव की कल्पना कर-कर के मैं स्वयं से दिन में कई-कई बार कह बैठता हूँ कि अरे अल्पज्ञानी! तुम स्वयं को धन्य समझो कि इन महापुरुषों की महान गाथा तुम्हें सुनने-जानने को मिल गयी, कि उनका प्रेममय जीवन तुम्हारी जड़ बुद्धि को छू कर तरंगित कर गया, कि तुम प्रयासों से हीन हो फिर भी स्वयं को धन्य मानो जो तुम्हें तुम्हारी कल्पनाओं में मीरा की निर्मलता छू गई, कल्पना में ही सही, तुम्हें कन्हैया और राधा के प्रेम की झलक मिल तो गई, तुमने शबरी के जूठे बेर देख लिए, तुमने रविदास की कठौती से गंगा को प्रणाम करना जाना, तुमने सूरदास का इकतारा सुना, तुमने तुलसी की स्याही में घुले राम को देखा, तुमने भोले का भोलापन देखा, अरे अल्पज्ञानी! तुमने प्रेम को सुना, पढ़ा, देखा, लिखा, अब तो प्रेममय हो जाओ! क्या प्रेम तुम्हारे जीवन का लक्ष्य नहीं?
मन की मंडी बिक गयी एक प्रेम फल पाय स्वाद अलौकिक मिल गया ऊँचा भाव उठाय -II प्रेम सारावली II
प्रेम रूपी फल को पाकर तो तरह-तरह के सांसारिक फलों से भरी मन की पूरी की पूरी मंडी ही मानो बिक गई हो, भाव की ऊँचाई पर पहुँच कर इस प्रेम फल का जो स्वाद मिला वैसा स्वाद संसार का कोई अन्य फल दे नहीं सका।
मानव द्वारा बनाए जाने वाले जीवन के सभी लक्ष्यों में समाहित हो जाने वाला ‘प्रेम’ मनुष्य का स्वभावगत और स्वाभाविक लक्ष्य है, प्रेम भले ही सभी के द्वारा घोषित लक्ष्य न हो लेकिन अघोषित रूप में सभी को चाहिए, प्रेम चेतनामय जीवन को उसके हर एक पड़ाव पर चाहिए ही तो फिर हम स्वयं से क्यों न पूछें कि भावपूर्ण सम्बन्ध के निर्दोष अनुभव को प्राप्त किए बिना गुजर जाने वाले जीवन को चेतना की ऊँची अनुभूति के सम्बन्ध में क्या हासिल हुआ? प्रेम के ऊँचे अनुभव के बिना मानव जीवन के अनुभवों का संसार अधूरा है।
व्यक्तिगत सन्दर्भ में जीवन सदा संघर्ष है जीवन के सच को जानना संघर्ष का निष्कर्ष है चित्त को उत्कर्ष देता सिद्ध-शाश्वत योग हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि व्यक्तिगत रूप से देखा जाए तो जीवन संघर्षों और प्रयासों की शृंखला है और इस जीवन के सत्य को जान लेने से ही इसके संघर्ष का निष्कर्ष निकलता है। मैं प्रमाणित रूप से चित्त को सदा ऊँची अवस्था में ले जाने वाला योग हूँ।
तुम पुरस्कृत हो ना हो, कर्म वह चुनना सदा जो तुम्हें जोड़े सभी से, बने सबकी सम्पदा कर्म-सुख में शुद्धता का स्वाद भरता तत्व हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि मैं मनुष्य के लक्ष्यों को सभी के लिए मूल्यवान बना देता हूँ, मैं कर्मों को तो शुद्ध करता ही हूँ साथ ही कर्मों से जो सुख प्राप्त होता है उसके स्वाद को भी शुद्धता से भर देता हूँ। मैं वह तत्व हूँ जो कर्मों के चुनाव में सही उद्देश्य को सुनिश्चित कर देता है, जीवन के लक्ष्य की ओर निकले हुए ओ पंथी! यदि तुम्हें अपनी सफलता का सच्चा स्वाद लेना है तो पुरस्कार मिलेंगे या नहीं इस पर कभी ध्यान मत देना, अपने सभी कर्मों में मुझे देखना तब तुम्हारे प्रयास तुम्हें सभी का अपना बना देंगे और तुम्हारे द्वारा किए गए कार्य सबके लिए मूल्यवान संपत्ति साबित होंगे।
मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि प्रत्येक मानव को प्रेम का ऐसा अनुभव दे कि उसे समय रहते प्रेम का महत्व समझ में आ जाए, मानव जीवन प्रेममय हो जाए I
सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!
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