प्रेम:अच्छे और बुरे के बीच
बौद्धिक विकास की अपनी महायात्रा में मानव ने अपनी विवेकशक्ति के संदर्भ में दो उपलब्धियाँ अर्जित कीं, वे उपलब्धियाँ हैं निर्णय करने की क्षमता और निष्कर्ष निकालने की प्रवृत्ति। निर्णय और निष्कर्ष के कौशल ने मनुष्य के जीवन का बहुमूल्य समय तो बचाया ही है साथ ही उसके जीवन को व्यक्तिगत और सामाजिक रूप से विकसित और संतुलित भी किया है। हम अपनी सामान्य दिनचर्या में ही कई बार निर्णय और निष्कर्ष की बौद्धिक प्रक्रिया को दोहराते हैं तथा हम सदा प्रयास करते हैं कि हमारे निर्णय और निष्कर्ष सही सिद्ध हों। यह तथ्य भी कितना रोचक है कि हमारे निर्णयों और निष्कर्षों की पहुँच हमारी धारणाओं तक है; अच्छे और बुरे हो जाने तक है, अच्छा और बुरा ये मानव बुद्धि के निष्कर्ष ही तो हैं!
किसी सिक्के के दो तलों की तरह, प्रकाश और अंधकार की दो अलग-अलग संभावनाओं की तरह मनुष्य की धारणा के संसार में अच्छाई और बुराई को बँटना ही होता है और ऐसा होना सवाभविक भी है क्योंकि दोनों की एक दूसरे से विरोधी पहिचान जो है। विरोधी पहिचान का सूत्र कहता है कि अच्छा है ही इसलिए अच्छा क्योंकि वह बुरा नहीं और बुरा इसलिए बुरा है क्योंकि वह अच्छा नहीं। ऐसा नहीं हो सकता कि जो जिस परिप्रेक्ष्य में अच्छा हो उसी संदर्भ में बुरा भी हो, या तो अच्छा होना स्थापित हो सकता है या बुरा होना, दोनों का एक साथ एक ही स्थान, समय और परिस्थिति में सह-अस्तित्व संभव नहीं जैसे दिन और रात का एक ही समय एक ही स्थान पर साथ संभव नहीं।
प्रेममय जीवन के इस प्रसंग में हम अच्छाई-बुराई और अच्छे-बुरे की धारणा को उस मध्यरेखा तक पहुँच कर जानेंगे जहाँ प्रेम की अपार संभावनायें प्रतीक्षा करती हैं
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो काव्यात्मक पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं
अपनी सार्थकता का लक्ष्य लिए मानव की जीवन यात्रा अच्छाई और बुराई की दो संभावनाओं के मध्य से होकर गुजरती है। धारणा जगत का वह रास्ता जिसे हम अच्छा कहते है हमें आत्मसंतोष और सामाजिक स्वीकृति का पुरस्कार दे जाता है, इसके विपरीत बुराई का पथ हमें पश्चाताप, प्रायश्चित और सामाजिक बहिष्कार का दण्ड दे जाता है। हम स्वाभाविक रूप से सदैव अच्छा जीवन चाहते हैं, इसलिए अच्छाई का पथ हमारा सहज पथ है और अच्छा कहलाना हमारी सहज अन्तःप्रेरणा। वह प्रत्येक गुण जो हमारे जीवन की गुणवत्ता को सुधारे और उसे सार्थक बनाए एक अच्छा गुण कहलाता है, लेकिन अच्छाई और बुराई की गाथा इतनी भी छोटी नहीं है, आधुनिक मानव अच्छे और बुरे को अपने दृष्टिकोण से फिर-फिर परिभाषित कर लेना चाहता है, और बचपन से ही अच्छे और बुरे के दृष्टा हो कर हम मनुष्य एक दूसरे को और घटनाओं को अच्छे या बुरे के साँचे में जमाते जाते हैं।
मनुष्य का जीवन गुणों का जीता जागता संग्रहालय है जहाँ वे प्रमाण सहित प्रदर्शित होते रहते हैं। गुण अपनी प्रकृति और प्रभाव में विरोधी भी हो सकते हैं और सहयोगी भी। विरोधी और सहयोगी गुणों के लगातार प्रकट होने से और उनके आपस में संयोग से मनुष्य की मनोदशा और व्यवहार में परिवर्तन आता रहता है तभी तो हम अपने जीवन में इस बात का बार-बार अनुभव करते हैं कि निर्णय और निष्कर्ष की प्रक्रिया में कभी-कभी एक व्यक्ति के भीतर ही दो व्यक्ति प्रस्तुत हो जाते हैं; एक वह जो किसी कार्य या धारणा की ओर प्रेरित कर रहा होता है और दूसरा वह जो उस कार्य या धारणा के विपरीत दिशा की ओर प्रेरित कर रहा होता है। गुणों के संयोग का एक अन्य प्रभाव भी हम अपने ऊपर अनुभव करते हैं और वह यह है कि हमारे भीतर प्रकट हो रहे विरोधी या सहयोगी गुण कभी-कभी हमें इतना निर्णय हीन कर देते हैं कि किसी निष्कर्ष तक पहुचना तो छोड़िए हमें इतनी स्पष्टता भी नहीं होती कि हम जा किस ओर रहे हैं? यही कारण है कि सदैव अच्छा होने की इच्छा लिए भी कभी-कभी हम कुछ ऐसा सोच लेते हैं या कर बैठते हैं जिसे बुरा कहा जाता है।
अच्छाई और बुराई के स्वरूप को, अच्छे और बुरे के अंतर को विश्व भर के विद्वान अपने-अपने दृष्टिकोण से समय-समय पर जनमानस के सामने रखते आए हैं। अपने व्यक्तित्व पर गुणों की छाप लिए चल रहे मनुष्य का प्रयास तो यही रहता है कि बुराई से और बुरे से बचकर रहा जाए लेकिन समाज में तो हर प्रकार की परिस्थितियाँ और भिन्न-भिन्न स्वभाव तथा बौद्धिक क्षमता के लोग होते हैं, और यदि परिस्थितियाँ विषम हो जाएँ तो अच्छा भला व्यक्ति भी अच्छाई और बुराई की कसौटी तक पहुँच जाता है। जनसामान्य की प्रचलित धारणा को ध्यान में रखकर देखा जाये तो समाज में व्यक्ति अच्छा या बुरा तब कहलाता है जब वह अपने व्यवहार से अच्छा या बुरा प्रमाणित हो जाए। लेकिन आदर्शवाद और नैतिक न्याय की धारणा रखने वाले व्यक्ति के दृष्टिकोण से देखा जाए तो अच्छाई और बुराई मूल रूप से प्रमाणित हो जाने के विषय नहीं हैं, वह तो पूछेगा कि क्या हो यदि व्यक्ति बुरा हो लेकिन उसकी बुराई को कोई प्रमाणित करने वाला न हो, तो क्या प्रमाण के न होने पर वह अपने आप में अच्छा व्यक्ति सिद्ध हो जाएगा? वह समाज से तो अपनी बुराई को छुपा लेगा लेकिन क्या अपनी अंतरात्मा से छुपा सकेगा?
निर्णय और निष्कर्ष की ओर बढ़ने वाली किसी विवेकवान की बुद्धि यथाशीघ्र यह स्थापित कर लेना चाहती है कि अच्छाई और बुराई का सत्य क्या है? अच्छे और बुरे की सार्वभौमिक पहचान क्या है? वह जान लेना चाहती है कि कोई कब अच्छा है और कब बुरा? कितना अच्छा है और कितना बुरा? प्रत्येक व्यक्ति के व्यक्तित्व में अच्छे और बुरे गुणों के मूल तत्व विद्यमान रहते हैं। जिस व्यक्ति में जिन गुणों को प्रकट होने का अवसर मिल जाता है उसकी मानसिक प्रवृत्तियाँ भी उन्हीं गुणों के अनुरूप हो जाती हैं फलस्वरूप वैसा ही उसका स्वभाव और व्यवहार होता है। अच्छी प्रवृत्तियाँ वे कहलाती हैं जो जीवन को उसकी सार्थकता देती हैं। परिस्थितियाँ पा कर व्यक्ति के गुण आपस में एक दूसरे का सहयोग भी करते हैं और प्रतिरोध भी इसलिए परिस्थितियाँ व्यक्ति के व्यक्तित्व की निर्णायक होती हैं। जो व्यक्ति विपरीत परिस्थितियों में भी अच्छी प्रवृत्तियों का ही आश्रय लेता है वही अच्छा व्यक्ति होता है, तुलनात्मक रूप से देखने पर वह कम या अधिक अच्छा हो सकता है लेकिन वह तब तक बुरा नहीं हो सकता जब तक वह स्वयं को बुरी प्रवृत्तियों से सतर्क और दूर रखता है।
अच्छाई और बुराई के संदर्भ में तार्किक रूप से अब हमें एक तथ्य परेशान कर सकता है और वह यह कि वर्षों की विकास प्रक्रिया से गुजरते आने के बाद भी मानव समाज आज भी इस विवशता से जूझ रहा है कि उसमें किसी व्यक्ति का अच्छा या बुरा हो जाना किसी परिस्थिति और व्यवहार के संदर्भ से ही सिद्ध हो सकता है। संसार में कुछ अति दुर्लभ व्यक्तियों को छोड़ कर लगभग सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के गुण होते हैं और परिस्थितियों की जटिलताओं को भी यदि सम्मिलित कर लिया जाए तो प्रथम निष्कर्ष तो यही निकलता है कि संसार का कोई भी व्यक्ति कभी भी न तो पूर्णतः अच्छा व्यक्ति सिद्ध हो सकता है और न ही पूर्णतः बुरा। इसी तथ्य पर आश्रित होकर दूसरा निष्कर्ष यह निकलता है कि किसी अच्छे व्यक्ति की बुरे व्यक्ति में बदल जाने की और बुरे व्यक्ति की अच्छे व्यक्ति में बदल जाने की संभावना जीवनपर्यंत बनी रहेगी। किसी समय बहुत बुरा कहलाने वाला व्यक्ति भी हो सकता है कि एक दिन बहुत अच्छा व्यक्ति कहलाने लगे, विश्वभर में ऐसे अनेकों उदाहरण हुए हैं। ऐसे कई निष्कर्ष हैं जो किसी तर्कवान को यह सोचने पर विवश कर देते हैं कि अच्छाई और बुराई का मापन कितना जटिल और किसी अंतिम निष्कर्ष तक पहुँचने का अंतहीन कार्य है!
अब कोई तर्कशास्त्री स्वाभाविक ही यह तर्क प्रस्तुत कर सकता है कि जब किसी व्यक्ति का अच्छा या बुरा होना परिस्थिति और सामाज द्वारा दी गई पहचान पर इतना अधिक निर्भर करता है तो हम अच्छाई और बुराई के फेर में नाहक ही पड़े रहते हैं! वह यह प्रश्न भी कर सकता है कि किसी दूसरे को अच्छा या बुरा कहने वाला व्यक्ति स्वयं क्या कोई न्यायाधीश है जिसके लिए किसी व्यक्ति के बारे में कोई निष्कर्ष निकालना अतिआवश्यक हो? वह किस कारण से किसी को प्रमाण पत्र बाँटने का प्रयास कर रहा है? तर्कशास्त्री का तर्क तो विचारणीय है, अच्छे या बुरे की कोई आदर्श परिभाषा सैद्धांतिक रूप से सदैव स्वीकृत की जा सकती है लेकिन व्यावहारिक रूप से इसे स्वीकार कर लेने में कई अड़चनें प्रस्तुत हो जाती हैं, मानव समाज के लिए यह व्यावहारिक विवशता इतनी व्यापक है कि प्रायः ही हम अपने जीवन में लोगों को यह कहते सुनते हैं कि “अमुक व्यक्ति को कुछ लोग भले बुरा कहते हों लेकिन हमें तो ऐसा नहीं लगा और न ही वह व्यक्ति हमारे लिए बुरा है।“ उनकी धारणा के विपरीत तर्क प्रस्तुत किए जाने पर वे यह भी कह सकते हैं कि “हो सकता है कि अमुक व्यक्ति बुरा हो लेकिन कोई कैसा है कैसा नहीं यह निर्णय करने वाले हम कौन होते हैं, किसी के बारे में कोई अंतिम राय इतने जल्दी नहीं बना लेनी चाहिए।“
जब हम किसी गुण, व्यक्ति या घटना को अच्छा कहते हैं तो इसका सीधा अभिप्राय उस गुण, व्यक्ति या घटना की सकारात्मकता और सार्थकता से होता है। अच्छाई या बुराई भले ही सापेक्षिक धारणाएँ हों लेकिन वे काल्पनिक नहीं हैं बल्कि व्यावहारिक रूप से प्रमाणित होने वाली सैद्धांतिक अभिव्यक्तियाँ हैं। अच्छे और बुरे गुण मानव व्यक्तित्व की विकास प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं इसलिए उनके अस्तित्व या उनकी सार्थकता पर उठने वाले प्रश्न न तो व्यक्तिगत संदर्भ में और न ही सामाजिक संदर्भ में अधिक समय तक टिके रह सकते हैं। अच्छाई या अच्छे गुण तो स्वयं में अच्छे हैं ही भले ही कोई उन्हें प्रमाणित करे या न करे, इसीप्रकार बुराई या बुरे गुणों को कोई कितना ही उचित ठहराने का प्रयास करे लेकिन वे स्वयं में अच्छे नहीं हो जाएँगे, जीवन की नकारात्मकता या निरर्थकता कभी भी उसकी सार्थकता का विकल्प नहीं हो सकती।
किसी प्रेमी स्वभाव के व्यक्ति के व्यक्तित्व का सौन्दर्य यह होता है कि वह अच्छाई और बुराई या अच्छे और बुरे की मध्य रेखा का सम्मान करता है, इस मध्य रेखा पर वह परिस्थितियों और धारणाओं को भी स्वीकार करता है इसीलिए वह आतुर होकर अच्छाई और बुराई को मान्यता नहीं दे देता, वह अच्छे को देवता और बुरे को दानव कह कर तत्क्षण सदैव के लिए छुट्टी नहीं पा लेता बल्कि वह उन्हें मानव ही देखता है और इस संभावना पर अपनी पूर्ण दृष्टि रखता है कि किसी बुरे को अच्छा बन जाने में कितना समय और प्रयास लगेगा, वह उस परिस्थिति और दृष्टि की प्रतीक्षा करता है जो किसी अभागे को भाग्यवान बना जाती है।
कौन कितना भला कितना बुरा है? मुझे हर कोई सदा अपना लगा है क्षण भर में अच्छा-बुरा पहचानते हो! चकित हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि आश्चर्य तो यह है कि किसी व्यक्ति की अच्छाई या बुराई को लेकर लोग क्षण भर में निष्कर्ष और धारणा बना लेते हैं भले ही उन्हें इस बात का ठीक-ठीक अनुमान भी न हो कि कोई कितना अच्छा या कितना बुरा है? मुझे अच्छे लोग सहज ही अपनाते हैं और मैं उन व्यक्तियों को भी अपना लेता हूँ जिनमें लोग बुराई देखते हैं, मैं अच्छाई और बुराई की मध्य रेखा पर पाया जाने वाला वह गुण हूँ जो बुरे को भी अच्छे व्यक्ति में परिवर्तित कर देता है।
हो जाये हिमखंड द्रव जल से करे मिलाप जीवन परिवर्तित करे सहज प्रेम का ताप -II प्रेम सारावली II
प्रेम सहज रूप से जीवन को परिवर्तित कर देता है। बर्फ की कोई विशालकाय चट्टान कितनी ही अडिग और कठोर हो लेकिन अपनी संरचना में वह जल ही है और जल से ही घिरी होती है, कम तापमान के कारण ही उसे ठोस रूप या अवस्था मिली, इसीप्रकार जीवन में प्रायः परिस्थितिवश मनुष्य का स्वभाव और उसके सम्बन्ध बाह्य रूप से अपनी मूल अवस्था से भिन्न हो जाते हैं, सम्बन्धों की यही मूल समस्या है। ऐसी परिस्थितियों में जब व्यक्ति प्रेम का आश्रय ले लेता है तो प्रेम की मधुर ऊष्णता उसके जीवन को अपनी पूर्वस्थिति प्राप्त करने में बड़ी सहायक सिद्ध होती है।
प्रेमी की सम दृष्टि में कोई नहीं अयोग्य सबको प्रियतम ने रचा सभी प्रेम के योग्य -II प्रेम सारावली II
प्रेमी व्यक्ति की दृष्टि सभी को समान भाव से देखती है, वह अच्छाई-बुराई और अच्छे-बुरे के निष्कर्ष के प्रभाव में नहीं आती। प्रेमी यह जानता है कि संसार में सभी व्यक्तियों के व्यक्तित्व में अच्छे और बुरे दोनों प्रकार के गुण होते हैं, परिस्थितियाँ और उसकी प्रवृत्तियाँ ही उसके गुणों को उभारती हैं। प्रेमी यह भी जानता है कि संसार का कोई भी व्यक्ति कभी भी न तो पूर्णतः अच्छा व्यक्ति सिद्ध हो सकता है और न ही पूर्णतः बुरा अतः यह जानते हुए भी कि कोई व्यक्ति बुरा है वह उसकी छुपी हुई अच्छाई को देखता है और अपने प्रेममय व्यवहार से उसकी अच्छाइयों को शीघ्र ही उसके व्यक्तिव पर उभरने में सहायता करता है। उसकी सम दृष्टि में उसकी यह धारणा होती है कि प्रकृति और सभी प्राणियों का रचयिता तो एक ही है, उसने सभी को प्रेम के योग्य बनाया है।
अपने अल्पज्ञान की सीमाओं को समझते हुए मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि सभी जिज्ञासुओं को प्रेम के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों का स्पष्टता से उत्तर मिले तथा उन्हें प्रेम का ऐसा अनुभव प्राप्त हो कि उनका जीवन प्रेममय हो जाए I सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!