प्रसंग-14-प्रेम और प्रेम की भाषा
प्रेम को लेकर गहराई से सोचने वाले व्यक्ति के मन में कभी न कभी यह प्रश्न उठ ही जाता है कि प्रेम वास्तव में कहते किसे हैं? कब कहा जाये कि यही प्रेम की सही पहचान है? इन प्रश्नों में ही छुपे हुए प्रेम का सत्य तो यह है कि प्रेम के यथार्थ अनुभव के लिए उसकी परिभाषा को पढ़ना ही पर्याप्त नहीं। प्रेम स्पष्ट तो अनुभव करने पर ही होता है, और जब मानव बुद्धि को प्रेम स्पष्ट होता है तो बुद्धि और विवेक अपनी सीमाओं के भीतर-भीतर ही प्रेम की परिभाषा में स्वतः ही गहरे उतरने लगते हैं, वे प्रेम की भाषा जो समझने और व्यक्त करने लगते हैं। अब हम क्यों न विचार करें कि प्रेम की भाषा क्या है? क्या ऐसी कोई भाषा भी है जिसे हम कह सकें कि यह तो प्रेम की भाषा है?
भाषाओं का हमारे जीवन से जुड़ाव और जीवन पर प्रभाव इतना सहज और गहरा है कि विश्व में जहाँ कहीं सभ्यताएँ जन्मीं वहीं भाषाएँ भी जन्मीं और जैसे-जैसे सभ्यताएँ विकसित हुईं, वैसे-वैसे भाषाएँ भी। मनुष्य ने हजारों भाषाएँ बनाईं और सीखीं, तभी तो हम पाते हैं कि छोटे-छोटे कबीलों से लेकर प्रदेशों और देशों की अपनी-अपनी भाषाएँ हैं। हमारे विचार और संवाद भाषा के ही माध्यम से चलते हैं। भाषा मानव अभिव्यक्ति की ऐसी सहज सरिता प्रतीत होती है जिसमें बहाव है, ध्वनि है, शब्दों से जुड़े हुए अर्थ हैं और स्पष्ट पथ भी है। संकेतों और सूचनाओं से भरी हुई भाषा-सरिता को उसकी पूरी यात्रा में जिन दो किनारों का सदैव साथ और स्पर्श मिलता है वे हैं: प्रतीक और व्याकरण।
प्रेममय जीवन के इस प्रसंग में हम मनुष्य द्वारा बोली और समझी जा सकने वाली भाषाओं की तरह ही प्रेम की भाषा के सम्बन्ध में विचार करेंगे ताकि हम अपने जीवन में प्रेम को अधिकाधिक अंशों में प्रत्यक्ष कर सकें।
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो काव्यात्मक पुस्तकों “प्रेम सारावली” एवं “मैं प्रेम हूँ” के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं
भावों की गहरी समझ रखने वाले व्यक्ति से मिलकर यह सिद्ध हो जाता है कि भाषा का प्रभाव केवल शब्दों के प्रयोग तक ही सीमित नहीं होता, वह पूरे शरीर से व्यक्त और प्रकट हो सकता है। भाषा संकेतों और भाव-भंगिमाओं तक अपना प्रभाव छोड़ती है और उनके माध्यम से मनोदशा प्रस्तुत कर देती है, तभी तो दुख के या सुख के बोल चेहरे और हाव-भावों में भी उतर आते हैं और इसीलिए तो जिसे हाव-भावों की समझ हो उसे मन की बात जान लेने में देर नहीं लगती। किसी भूखे व्यक्ति से मिलिए क्या उसे देख कर ही इस बात का पता नहीं चल जाता कि भूख भी बोलती है? किसी विवश व्यक्ति के चेहरे को देख कर क्या यह तथ्य छुप सकता है कि विवशता अपना हाल स्वयं सुना देती है? किसी प्रसन्न व्यक्ति के सानिध्य में क्या उसकी प्रसन्नता आपसे छुप सकती है? वह मनोदशा जिसे हम आँखों से पढ़ लेते हैं, वह सारी कहानी जिसे हम एक आँसू और सिसकी में सुन लेते हैं, हमें कितनी सरलता से यह सिखाते हैं कि भाषा की जड़ें बहुत गहरी होती हैं, वे शब्दों के आकार लेने से पहले ही जाने कितने अर्थ गढ़ चुकी होती हैं!
वर्तमान तकनीकी युग में जब आधुनिक मानव के जीवन का बहुत सारा समय भाषाओं को सीखने, समझने और उन्हें विकसित करने में व्यतीत हो रहा है तब भाषाओं का महत्व क्या है यह वह अच्छे से जानता है। भाषाओं का एक तथ्य हमारे लिए कई आयामों को खोल सकता है और वह है कि प्रत्येक भाषा संकेतों और प्रतीकों पर आधारित होती है। थोड़ा विचार कीजिए कि हमारे पालतू पशु भले ही हमारी भाषा को उस रूप में नहीं समझ सकते जिस रूप में हम लेकिन हमारे संकेतों को वे समझ सकते हैं, वे हमारे द्वारा दिए गए प्रतीकों से भी स्वयं को जोड़ पाते हैं, वे हमारे दुलार को समझ सकते हैं उन्हें हमारे प्रेमपूर्ण व्यवहार की स्पष्ट समझ होती है, अब यह प्रश्न हमारे विचार के लिए है कि क्या प्रेम की कोई ऐसी सांकेतिक या प्रतीकात्मक भाषा है जो हमें जानवर से भी जोड़ देती है? हमारे अनुभव की बात तो यह है कि वह भाषा केवल हमें उनसे जोड़ ही नहीं देती बल्कि उनके साथ अर्थपूर्ण संवाद भी स्थापित करा देती है।
प्रेम की भाषा इस संसार की ऐसी भाषा है जो स्वयं को समझे जाने की चिर प्रतीक्षा कर रही है। प्रेम की भाषा हर कोई समझ और सीख तो सकता है लेकिन सामान्यतः समझना और सीखना नहीं चाहता इसलिए हम पाते हैं कि प्रेम और प्रेम की भाषा को लेकर यह बहुत आवश्यक हो जाता है कि उसे कोई समझने वाला हो, सीखने को तैयार तो हो! लेकिन मनुष्य की सामान्य समझ का यथार्थ यह भी है कि उसे प्रेम की भाषा का महत्व सरलता से समझ में नहीं आता, यही तो कारण है कि जिस भाषा में उतर कर हम भावपूर्ण जुड़ाव के निर्दोष अनुभव को जी सकते हैं, प्रेम का प्रत्यक्ष अनुभव कर सकते हैं, हम में ही दबी रह जाती है, वह जीवन भर प्रकट और परिष्कृत नहीं हो पाती।
भाषा प्रतीकों और संकेतों का वह समूह है जो सूचना को व्यक्त और प्रवाहित करती है। भावनाओं, विचारों और ध्वनियों के रूप में सूचना को व्यक्त करना और उसे प्रवाहित करना ही प्रत्येक भाषा का मूल लक्ष्य है। शब्द और व्याकरण भाषा का शरीर बनाते हैं और अर्थ उसका जीवन। अर्थों में ही भाषा का जीवन विकसित होता है। अर्थ भाषा को नया रूप और आयाम देते हैं, किसी एक ही शब्द के किन्हीं दो या दो से अधिक भाषाओं में अलग-अलग अर्थ हो सकते हैं। भाषा के साथ एक और खूबी यह है कि किसी भाषा में पाए जाने वाले शब्दों और संकेतों का प्रयोग कई प्रकार से किया जा सकता है, यही तो वह रचनात्मकता है जिससे व्यंग्य, प्रसन्नता, स्वागत, क्षमा, उपहास, तिरस्कार, चेतावनी, खेद इत्यादि की अभिव्यक्तियाँ संभव हो पाती हैं। कोई भाषा जितनी समृद्ध होती है, उसके द्वारा भाव-भावनाओं को उतनी ही अधिक सूक्ष्मता और प्रभावी रूप से व्यक्त किया जा सकता है। प्रत्येक भाषा का मानव की सोच पर अनूठा प्रभाव पड़ा है।
प्रेम और प्रेम की भाषा की उपयोगिता को लेकर जनमानस में प्रायः दो विरोधी विचार रहते हैं: एक तो यह कि संसार केवल प्रेम से ही नहीं चलता इसमें संघर्ष, विरोध और युद्ध के अवसर भी निरंतर आते रहते हैं, क्या हो जब आप प्रेम की भाषा बोलें और कोई व्यक्ति उस भाषा को समझने के बजाय आक्रामक रहे? दूसरा यह कि जब प्रेम अनुभव का विषय है तो प्रेम की कोई सार्थक भाषा कितनी प्रभावी हो सकती है? प्रेमी जन तो प्रायः कहते हैं कि प्रेम की अनुभूति का वर्णन किया ही नहीं जा सकता, तो प्रेम अनुभव का विषय है या भाषा और व्यवहार का?
प्रेम कोई स्थूल और केवल देह का विषय नहीं है, यह सूक्ष्म विषय है जो चेतना के तल पर कार्य करता है। बाहर से देखने पर तो यह प्रतीत भी नहीं होता कि इस प्रकृति का या संसार का चेतना से कोई सीधा सम्बन्ध भी है, वह तो बिना किसी चेतना के अपने नियमों से चलती प्रतीत होती है, लेकिन जब हम अपने चेतन मस्तिष्क की मदद से प्रकृति को समझते हैं और अपने जीवन को नियंत्रित कर पाते हैं तब हमें स्पष्ट हो जाता है कि चेतना भी कोई शक्ति है जो पूरा का पूरा संसार रच देती है। प्रेम चेतना में ही तो बहता है और इसी से स्पष्ट भी होता है। जब जानवर भी प्रेम की भाषा समझ सकता है तो मनुष्य क्यों नहीं? क्या मनुष्य के लिए प्रेम इतना असंभव और महत्वहीन है कि वह युद्ध न टाल सके? यदि हम अपने व्यवहार और विचारों को नियंत्रित कर सकते हैं तो उन्हीं विचारों में प्रेम के प्रति आदर और आकर्षण पैदा क्यों नहीं कर सकते? प्रेम में तो बड़े-बड़े त्याग भी सरलता से हो जाते हैं, स्वीकृति से हो जाते हैं, बिना कोई मूल्य माँगे हो जाते हैं। हम मनुष्यों को यह स्पष्ट कर लेने की बहुत आवश्यकता है कि हमें आक्रामक जीवन चाहिए या प्रेममय जीवन?
प्रेम अनुभव का विषय है, लेकिन ऐसा नहीं है कि प्रेम को प्रकट ही न किया जा सकता हो, यदि ऐसा होता तो हमें प्रेम की पहचान ही कैसे होती? हम कैसे जान पाते कि अमुक व्यक्ति का जीवन प्रेममय है या नहीं? प्रेम भाषा, वाणी, व्यवहार और हाव-भावों से भी प्रकट होता है, प्रेम में आकर्षण होता है। जब हम यह कहते हैं कि प्रेम का वर्णन नहीं किया जा सकता, जब हम कहते हैं कि स्वयं पर होने वाले प्रेम के प्रभाव को कैसे किसी से प्रकट करें, शब्द ही नहीं मिलते, भाषा भी सीमित लगने लगती है, तब हमें यह स्पष्ट होता है प्रेम के क्रमशः अलग-अलग तल और अवस्थाएँ होती हैं, वे अवस्थाएँ हैं; स्थूल, सूक्ष्म और चैतन्य। स्थूल तल से चैतन्य तल की ओर चलते हुए अनुभवों में प्रेम गहरा होता जाता है, और जिस तल पर जा कर प्रेम वर्णन से परे हो जाता है वह सूक्ष्म और चैतन्य तल या अवस्था की बात है। स्थूल तल पर तो प्रेम बोलचाल तथा व्यवहार द्वारा समाज में प्रकट होता ही है। फिर उससे आगे सूक्ष्म और चैतन्य प्रेम को प्रकट करना ही कहाँ है? उसे तो अनुभव ही करना है उसमें स्थित ही होना है, वही तो प्रेमयोग है।
प्रेम की भाषा सहज रूप से जीव के भीतर स्वतः जन्म लेती है और परिस्थिति पाकर प्रकट होती है भले ही उसे कोई समझे या नही। प्रेम की भाषा में जीवन का सामंजस्य और समन्वय होता है, उसमें गूढ़ आनन्द समाहित है, जीवन की सार्थकता घनीभूत है। प्रेम की भाषा ऐसी भाषा है जो जुड़ाव को जिस निर्मलता से व्यक्त करती है, उसी निर्मलता से सँजो कर भी रखती है। चूँकि भाव ही प्रेम की बुनियाद है इसलिए सभी से भावपूर्ण जुड़ाव का निर्दोष अनुभव कराने वाली प्रवृत्तियाँ व्यक्ति के भीतर प्रेम की भाषा को जन्म देती हैं। अपने मूल स्वरूप में प्रेम की भाषा आत्मीयता को जन्म देने वाली प्रवृत्तियों की भाषा ही है।
पशु के भी भावों को पढ़ ले
उससे सारी बातें कह ले
ऐसा भाषा-कौशल हूँ
मैं प्रेम हूँ
-II मैं प्रेम हूँ I
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि भाषा को गहराई से जानने वाले व्यक्ति का कौशल केवल शब्दों के अर्थ को समझ लेने तक ही सीमित नहीं होता, भाषा का ऊँचा जानकार तो भावों तक को पढ़ लेने की क्षमता रखता है और वह भी केवल मनुष्यों के सम्बन्ध में नहीं बल्कि पशुओं के सम्बन्ध में भी। मैं वह भाषा और वह कौशल हूँ जो व्यक्ति को इतना समर्थ बना देता है कि उसके लिए किसी के भावों को पढ़ लेना भी बहुत सहज हो जाता है।
लेकिन भावपूर्ण जुड़ाव का निर्दोष अनुभव कैसे हो? प्रेम की भाषा का ज्ञान कैसे हो? हमारे चित्त के, हमारे मन के निर्मल होते ही हम सभी के साथ भावपूर्ण सम्बन्ध का निर्दोष और निष्कपट अनुभव कर पाते हैं, और हमारे चित्त को निर्मल करने वाली प्रवृत्तियाँ हैं: सभी के साथ मित्रता का भाव, सहयोग का भाव, करुणा का भाव, और प्रसन्नता का भाव रखना। भावनाओं की भाषा ही विकसित होकर विचारों की भाषा बन जाती है, और विचारों की भाषा परिष्कृत होकर व्यवहार, क्रिया कलाप और हाव-भावों में प्रकट हो जाती है। भावों से लेकर व्यवहार तक प्रेम की भाषा के रूप लेने में हम यह पाते हैं कि प्रेम में स्थिर आत्मीयता होती है। प्रेम की भाषा की सहज यात्रा और उस भाषा का मूल स्वरूप तो यही है, फिर उसमें कितना सौन्दर्य और सुगमता प्रकट हो जाए यह तो व्यक्तिगत प्रयासों और कुशलता का विषय है।
प्रेम की भाषा के प्रवाह में उतर कर प्रेम को जानने वाला प्रेमी व्यक्ति इस बात को प्रमाणित कर लेता है कि प्रेम की भाषा में शब्द भी उतने ही सार्थक होते हैं जितनी भंगिमाएँ या व्यवहार, प्रतीक भी उतने ही सार्थक होते हैं जितने संकेत और मौन। भावपूर्ण जुड़ाव प्रेम की भाषा को इतना सार्थक और प्रभावी बनाता है कि वह प्रजातियों को भी जोड़ देता है और वर्गों को भी, वह मानव से मानव को तो जोड़ ही देता है, साथ ही साथ उसे सम्पूर्ण प्रकृति से और बृहद चेतना से भी जोड़ देता है। मनुष्य के लिए यह सौभाग्य की बात है कि उसके पास इतनी बौद्धिक क्षमता है कि वह प्रेम की भाषा को अपना सके और अपने सम्पूर्ण जीवन को उस भाषा में ढाल सके, उसे अपने व्यवहार में उतार सके।
पंथी मौनी हो गया छूटे सभी विरोध
भाषा की दुविधा मिटी हुआ भाव का बोध
-II प्रेम सारावली II
प्रेम के पथ पर चलने वाले व्यक्ति का चित्त स्वतः ही शांत होने लगता है। प्रेम का गहरा अनुभव कर लेने वाले व्यक्ति का मन उस दुर्लभ मौन को स्वीकार कर पाता है जिसमें सभी प्रकार के विरोध पीछे छूट जाते हैं, प्रेमी होकर व्यक्ति फिर विरोध के फेर में नहीं उलझता वह उससे दूर हो जाता है। प्रेमी को जब जुड़ाव का स्थिर अनुभव हो जाता है तब वह भावों की भाषा में इतना गहरा उतरने लगता है कि उसे प्रेम की भाषा प्रत्यक्ष हो जाती है।
मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि प्रत्येक मानव को प्रेम का ऐसा अनुभव दे कि उसे समय रहते प्रेम का महत्व समझ में आ जाए, मानव जीवन प्रेममय हो जाए I सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!