प्रेम के रूप और प्रेम की सर्वोच्च अवस्था
मेरी दृष्टि में तो मानव समाज की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है कि मानव समाज में बनने वाले सभी नातों को, सभी सम्बन्धों को प्रेम प्राप्त हुआ I गुरु और शिष्य के बीच, माता-पिता और संतानों के बीच, भाई और बहन के बीच, पति और पत्नी के बीच, मालिक और सेवक के बीच, कलाकार और दर्शक के बीच, वक्ता और श्रोता के बीच, सभी प्रकार के सम्बन्धों के बीच प्रेम अपने होने का प्रत्यक्ष अनुभव कराता आया है I प्रेम सभी जगह उपलब्ध है, सभी जगह सार्थक है I
प्रेम तो खेल-खेल में भी सार्थक हो जाता है, अपनी उपलब्धता सिद्ध कर देता है I किसी खेल के प्रेम में खिलाड़ी कितनी आतुरता से अपना प्रतिद्वंदी खोजता है! “काश! कोई साथ खेलने वाला मिल जाए, कोई हारने वाला मिल जाए”, और अपनी जीत को सिद्ध कर देने के लिए विजेता को अपना हारा हुआ प्रतिद्वंदी भी बुरा नहीं लगता बल्कि कई बार तो बहुत प्रिय होता है, क्योंकि उसी की हार ने तो स्वयं की जीत का आनंद दिया, लेकिन प्रेम की गहरी समझ वाला व्यक्ति संसार के खेल में अपने लिए सदैव पराजय चुनता है और किसी अपने को जीतता हुआ देखना चाहता है, किसी अबोध बालक के साथ जब हम खेलने बैठ जाते हैं तो हमें उसकी प्रसन्नता के लिए जानबूझ कर हारने में कितना आनंद मिलता है!…प्रेममय जीवन में आइए हम प्रेम को यथार्थ रूप में जानें, प्रेम को जिएँ, प्रेम में झूमें, हम प्रेम में डूबें
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं
प्रसंग-1 और 2 में हमने जाना कि प्रेम क्या होता है, प्रेमी कैसा होता है और यह कि प्रेम क्यों और कितना महत्वपूर्ण है प्रसंग-3: में हम प्रेम के रूपों को और प्रेम की सर्वोच्च अवस्था को जानेंगे, यह प्रसंग हमारे लिए प्रेम के गहरे अनुभव का आधार बनेगा
एक उदाहरण से हम यह समझ सकेंगे कि संसार में प्रेम क्यों तरह-तरह से हमारे अनुभव में आता है और हम किस प्रकार से प्रेम की अलग-अलग अवस्थाओं में पहुँचते जाते हैं:
कोई व्यक्ति जिसने नदी को बस दूर से ही देखा है, कभी पास जा कर नहीं देखा वह अपने अनुभव में नदी का सच कितने अंशों में जानता है? जिस दूरी से उसने नदी को जाना है वह उसे इस बात का अनुभव नहीं दे सकती कि नदी की धारा में उतर कर कैसा अनुभव होता होगा? या फिर नदी के किनारे पर पहुँच कर कैसा अनुभव होता होगा? जिस दूरी या दृष्टिकोण से वह उस नदी को जानता है उसका सच यही है। अपनी सीमितता में उसका अनुभव भी सच्चा ही है लेकिन नदी का जो अनुभव किसी तैराक को है वह नदी को दूर से जानने वाले के पास अभी नहीं है और यह भी संभव है कि एक साधारण तैराक को भी नदी की धारा का वह अनुभव न हो जैसा किसी कुशल तैराक हो। हमारे अनुभव जगत में तथ्यों के सम्बन्ध में हमारी स्थिति और दृष्टिकोण केन्द्रीय भूमिका निभाते हैं। प्रेम के अनुभव के सम्बन्ध में भी ऐसा ही है, यही कारण है कि प्रेम इतने सारे रूपों और अवस्थाओं में हमारे अनुभव में आता है।
व्यक्ति में सामान्यत: अनुभवों का विस्तार होते रहने के कारण प्रेम की अनुभूति में परिवर्तन आता है I -II प्रेम सारावली- सूत्र- ७ II
कभी प्रेम वर्षा लगे कभी सुनहरी धूप कभी भाव सरिता लगे कभी मर्म का कूप -II प्रेम सारावली II
भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में तो प्रेम की अनुभूति अलग-अलग हो ही सकती है साथ ही यह भी संभव है कि एक ही व्यक्ति को सामान्यतः समय-समय पर अनुभवों का विस्तार होते रहने के कारण प्रेम कभी बारिश की तरह, कभी सुनहरी धूप की तरह लगता है, कभी वह भाव से भरी हुई नदी की तरह और कभी तात्विक रहस्य से भरे कुएँ की तरह प्रतीत होता है।
प्रेम की अनुभूतियों के अलावा भिन्न-भिन्न व्यक्तियों में प्रेम जताने के तरीके में भी भिन्नता हो सकती है, हो सकता है कि कोई माँ जिस तरह से प्रेम जताए, एक पिता उस तरह से प्रेम ना जताए। दिन भर छोटी-छोटी बातों पर अपनी बहन से झगड़ने वाला कोई भाई, हो सकता है उस बहन को रत्ती भर भी दुखी ना देख सके और उसके लिए खुशी-खुशी वह सब कुछ बिना कहे अपने आप करे जो सामान्यतः वह कहने पर भी नहीं करता। अपने पति से किसी बात पर बहुत व्यथित पत्नी भी, हो सकता है कि पति को भूखा ना सोने दे और भले ही खुद ना खाए पर पति के लिए खाना बनाए और उसे खिलाने के लिए अपनी व्यथा को भी नजरअंदाज कर दे। अपनी पत्नी की उसके सामने कभी भी प्रशंसा ना करने वाला व्यक्ति भी, हो सकता है कि उसके पीठ पीछे अपने बच्चों को बताए कि उनकी माँ बहुत अच्छी है।
ज्यामिति सम्बन्ध की मैं चाप मैं, हूँ रेख मैं कोण मैं, हूँ परिधि मैं, मैं केन्द्र हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि मैं स्वयं में सम्बन्धों के रूप और आकार को निर्धारित कर देने वाली ज्यामिति हूँ। व्यक्तियों के बीच जिस-जिस तरह से सम्बन्ध जुड़ सकता है उस-उस तरह से मैं उन्हें जोड़ देता हूँ। जहाँ सम्बन्ध सीधा नहीं जुड़ सकता मैं वहाँ चाप के रूप में घुमाव लेते हुए जोड़ने का काम करता हूँ, कहीं मैं रेखा का रूप ले कर सीधे ही दो व्यक्तियों को आपस में जोड़ देता हूँ और कहीं मैं दो व्यक्तियों को एक कोण बन कर जोड़ता हूँ। मैं सम्बन्धों की सभी ओर यात्रा करा देने वाली परिधि हूँ और सभी प्रकार के सम्बन्धों का केंद्र भी मैं ही हूँ।
मैं प्रिया, प्रियतम हूँ मैं नाथ मैं, सेवक हूँ मैं गुरु, बंधु, मित्र मैं, साकार बारम्बार हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि मैं तरह-तरह के सम्बन्धों का रूप ले कर बार-बार इस संसार में प्रकट होता हूँ, किसी को मैं प्रेयसी में प्राप्त होता हूँ, किसी को प्रियतम में, किसी को मैं स्वामी में प्राप्त होता हूँ किसी को सेवक में, कोई मुझे गुरु में पाता है, कोई भाई में और किसी को मैं मित्र में प्राप्त होता हूँ।
सोए का सुख बस सपना जागत का सब जग अपना दृष्टि का अभ्यास हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि इस संसार में जो व्यक्ति अभी सो ही रहा है उसे उसका अच्छा सपना ही सुख देता है, लेकिन सपने तो दुख भी दे सकते हैं, इसलिए उसका वह सुख वास्तविक नहीं बल्कि एक सपना ही है, परंतु जो जाग जाता है वह अपनेपन के वास्तविक जगत से जुड़ जाता है, मैं दृष्टि का वह अभ्यास हूँ जो सपने और वास्तविकता के अंतर को स्पष्ट कर देता है।
बरसता बादल हूँ मैं घट-घट पहुँचता जल हूँ मैं एक का अनेक में विस्तार हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि मैं वह जल हूँ जो बादल का रूप लेकर बरसता है और फिर स्थान स्थान पर, घट-घट में पहुँचता है, मैं सदा वही एक हूँ जो विस्तार लेकर अनेकों तक पहुँच जाता है।
मनुष्य की चेतना में अस्तित्व के ऊँचे और सूक्ष्म आयामों को पकड़ने की शक्ति होती है, सामान्यतः वह हमारे नित्य दैनिक जीवन में प्रकट नहीं होती लेकिन जैसे ही हम अपने मन को किसी एक ओर केंद्रित करना और शांत करना सीख जाते हैं, हमें हमारी चेतना की असाधारण क्षमताओं का पता चलने लगता है। भावपूर्ण सम्बन्ध के निर्दोष अनुभव का जितना गहरा अनुभव हमें होता जाता है हम प्रेम की उतनी ऊँची और सूक्ष्म अवस्था में प्रवेश करने लगते हैं।
प्रेम अस्तित्व के ऊँचे आयामों को प्रत्यक्ष कराता है I
-II प्रेम सारावली- सूत्र- १५ II
तीन अवस्था और तल प्रेम परिस्थिति जन्य तीनों को पहचानिये स्थूल सूक्ष्म चैतन्य -II प्रेम सारावली II
परिस्थितियों और अनुभवों के आधार पर व्यक्तियों में प्रेम तीन अवस्थाओं में और तलों पर घटित होता है, अनुभवों के वे तल और अवस्थाएँ सामान्यतः क्रम से एक के बाद एक आते हैं और वे हैं: स्थूल (यह सुख की अवस्था और तल है), सूक्ष्म (यह आनंद की अवस्था और तल है) और चैतन्य (यह चेतना की व्यापक एकरूपता की अवस्था और तल है)।
मोह भरे अनुराग के सुख में जिसका मूल प्रेम अवस्था और तल हैं कहलाते स्थूल -II प्रेम सारावली II
प्रेम की स्थूल अवस्था प्रेम की सबसे प्रारम्भिक अवस्था है। अनुभव के इस तल पर व्यक्ति में मोह के कारण प्रेम का अनुभव होने लगता है और उसके चित्त में इस मोह से पैदा हुए सम्बन्ध का सुख लगातार प्राप्त करने की प्रवृत्ति बन जाती है। प्रेम की यह अवस्था कोमल और अपरिपक्व होती है।
विषय बने आनंद जब अनुभव होता सूक्ष्म प्रेम अवस्था और तल होते हैं तब सूक्ष्म -II प्रेम सारावली II
भावपूर्ण सम्बन्ध का निर्दोष अनुभव करने वाले व्यक्ति में जब भाव तथा उसका अनुभव स्थिर हो जाता है तो वह सूक्ष्म होता जाता है और प्रेम का स्थिर अनुभव ही सूक्ष्म होकर आनंद में बदल जाता है। प्रेम की यह अवस्था प्रेम की दृढ़भूमि है, यह प्रेम की परिपक्व अवस्था है।
परे विषय से होय जब चेतन अनुभवगम्य निज स्वरूप जो हो अचल प्रेम कहो चैतन्य -II प्रेम सारावली II
संसार के विषयों से परे जा कर जब निर्दोष अनुभव में स्थिर हुए प्रेमी को स्वयं के भीतर ही असीम चेतना का अनुभव हो जाए तो उसमें आनंद का ऐसा संचार होता है जैसा प्रेम की सूक्ष्म अवस्था में भी नहीं होता, यही प्रेम की सबसे ऊँची और सबसे शुद्ध अवस्था है। जो भी व्यक्ति अपने जीवन काल में प्रेम की इस अवस्था का अनुभव कर लेता है, वह चैतन्य प्रेम का साक्षी हो जाता है, ऐसे व्यक्ति को अपने ध्येय (अपने प्रियतम) के वास्तविक स्वरूप का यथार्थ अनुभव हो जाता है और वह अनुभव फिर परिस्थितियों के प्रभाव में आकर बदलता नहीं है।
अनुभव सबसे निकट है अनुभव कर ले जीव
सत्य कल्पना भ्रांति की अनुभव रखता नींव
-II प्रेम सारावली II
भौतिकता से भरे हुए इस जगत में प्रत्येक प्राणी के सबसे निकट यदि कुछ है तो वे उसके अनुभव हैं, क्या सत्य है, क्या कल्पना है और क्या भ्रम है यह ज्ञान व्यक्ति को उसके अनुभव ही करा सकते हैं, अनुभव ही उसके विवेक की नींव हैं इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को अनुभव को सदैव महत्व देना चाहिए।
प्रेम के यथार्थ ज्ञान की खोज में निकले प्रेम-पथिक को यह सदैव याद रखना चाहिए कि प्रेम का सही-सही ज्ञान तो अनुभवों के परिपक्व होने पर ही होता है, इसलिए प्रेम के साधक को चाहिये कि वह प्रेम के पथ पर कोई जल्दबाजी ना करे, कोई अंधी दौड़ ना लगाए बल्कि इस पथ पर ठहरने का अभ्यास करे क्योंकि प्रेम के पथ पर भागने वाला व्यक्ति इस पथ को खो देता है। मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि प्रत्येक मानव को प्रेम का ऐसा अनुभव दे कि उसे समय रहते प्रेम का महत्व समझ में आ जाए, मानव जीवन प्रेममय हो जाए I
सही ज्ञान तो प्रेम का होते-होते होय जो ठहरे आगे बढ़े भागे पथ को खोय -II प्रेम सारावली II
सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!