प्रेम: साधकों के लिए
हम मनुष्यों का यह स्वभाव है कि जीवन और प्रकृति के तथ्य जब हमारी बुद्धि के सामने स्पष्ट हो जाते हैं तो हमें जीवन न केवल सरल और सुगम लगने लगता है बल्कि रुचिकर भी लगने लगता है, उसमें कोई सार्थकता दिखाई देने लगती है। यही तो कारण है कि अपनी विकास यात्रा में मनुष्य खोजी हो गया, साधक हो गया, उसने प्रकृति के रहस्यों की खोज की, उन्हें अनुभव किया, उसने प्रकृति के नियमों को क्रम से संकलित किया, उसने आविष्कार किए, उसने सत्य को प्रमाण सहित स्थापित कर लिया।
यदि आपने अपने जीवन में कभी कोई साधना की हो या किसी साधक के जीवन को निकटता से देखा हो तो आप जीवन के इस सत्य से तो परिचित होंगे ही कि मनुष्य जब कोई साधना करता है तो वह स्वयं की छुपी हुई शक्तियों और सामर्थ्य को पहचानने लगता है। प्रारंभ में तो वह आश्चर्य करता है कि “अरे! मेरे भीतर इतनी क्षमता है जिसका मुझे अनुमान तक न था। कैसा अद्भुत अनुभव है कि मेरे प्रयासों के कौशल ने प्रत्यक्ष होकर मेरी स्वयं के प्रति धारणा ही बदल कर रख दी! मैंने स्वयं को और अपने संसार को तब तक इतना ठीक-ठीक न समझा था जब तक स्वयं को किसी लक्ष्य और प्रयासों से भली प्रकार नहीं जोड़ा था।“
तो मानव जीवन पर इतना प्रबल प्रभाव रखने वाली साधना होती क्या है? और साधक किसे कहते हैं? अब यह स्पष्ट हो जाए तो लक्ष्य और प्रयासों के पथ को जैसे मील के पत्थर मिल जाएँ, जो ये बता दें कि लक्ष्य अब कितना दूर है और प्रयासों को पथ पर कितनी दूर तक बने रहना है। प्रयास करने में भी अपना आनंद होता है। आप यदि मानवता के इतिहास में झाँकेंगे तो पायेंगे कि लक्ष्य की स्पष्ट समझ और प्रयासों के आनंद का मनुष्य की चेतना पर बड़ा क्रांतिकारी प्रभाव हुआ है। प्रत्येक मनुष्य की जीवन यात्रा में स्वतः ही उभर आने वाले विकास के इस अद्भुत दृश्य को तो देखिए कि जहाँ लक्ष्य हो और उस लक्ष्य को पा लेने का प्रयास हो और अपने प्रयासों की इस यात्रा में मानव स्वयं पर नियंत्रण पाना सीख जाता हो, जहाँ वह स्वयं को गहराई से जान जाता हो, वह स्वयं को सम्हालना और आगे बढ़ना सीख जाता हो, वह निखर जाता हो। किसी लक्ष्य की दिशा में प्रयास करते हुए स्वयं पर नियंत्रण का अभ्यास ही साधना है, और साधक वही है जो साधना कर रहा है।
साधना का अर्थ, उसकी परिभाषा स्पष्ट होते ही अब संभव है कि कुछ प्रश्न मन में प्रकट हो जाएँ जैसे कि स्वयं पर नियंत्रण का अभ्यास क्यों करना है? क्या इस अभ्यास के बिना जीवन न चलेगा? और यदि न चलेगा तो सभी साधना करते क्यों नहीं? साधना कोई दुर्लभ अवसर सा क्यों लगता है जिसकी आवश्यकता किसी-किसी को ही महसूस होती है? जीवन की सुविधायें और आराम जुटायें या साधना में जीवन बिताएँ? क्या साधना जीवन की आधारभूत आवश्यकता है भी? या वह स्वयं को विशेष बनाने का एक विकल्प है? किसी साधक के लिए प्रेम का क्या महत्व है? क्या प्रेम भी साधना का विषय है?
प्रेममय जीवन का यह प्रसंग साधकों के लिए समर्पित है। इस प्रसंग में हम साधना के महात्म्य को जानते हुए साधक के जीवन में प्रेम का महत्व जानेंगे, हम भौतिक या आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर की जाने वाली सभी प्रकार की साधनाओं में प्रेम के भोले भाव का प्रभाव समझेंगे ताकि हम यह भली प्रकार से स्थापित कर लें कि किसी साधक के लिए प्रेम की आवश्यकता का सार क्या है?
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो काव्यात्मक पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं
साधना मनुष्य को भौतिक तथा आध्यात्मिक दोनों आयामों में विकसित कर देती है, उसका महत्व बहुत बड़ा है। साधना जैसे कोई द्वार है जो खुल जाए तो अनुभवों की नयी यात्रा प्रारम्भ हो जाए, जो प्रकृति के उन नियमों को साधक की बुद्धि में प्रकाशित होने दे, जिनसे वह अभी तक अनभिज्ञ है। साधना स्वयं को अस्तित्व के ऊँचे आयाम से जोड़ देने का अवसर है, साधना जैसे कोई पर्व है जिसके उल्लास को साधक ही जानता है। साधना वह मस्ती है जिसमें उतर कर अपने लक्ष्य से प्रेम हो जाता है, जिसमें प्रयास नाचते हैं, जिसमें साधक झूमता है, वह जीवन का संतुलन जो सीख जाता है और स्वयं की सामर्थ्य को विकसित होता देख पाता है।
तो इस प्रसंग में प्रसंगवश उठ खड़े हुए प्रश्नों को अब क्रम से लेते हैं, ताकि हमारी बुद्धि स्पष्टता के आल्हाद का अनुभव कर पाए। प्रारम्भिक प्रश्न था कि स्वयं पर नियंत्रण का अभ्यास क्यों करना है? स्वयं पर नियंत्रण का अभ्यास इसलिए करना है क्योंकि प्रकृति ने बुद्धि के नियंत्रण का विकास ही इसलिए किया है ताकि वह जीवन को निष्फल या विफल होने से बचाए, किसी अनियंत्रित वाहन की तरह अनियंत्रित जीवन भी बहुत बड़ी समस्या है, तभी तो परिवार से लेकर समाज तक, अनुभवों से लेकर व्यवहार तक, रोगों से लेकर रुचियों और आदतों तक हम स्वयं को नियंत्रित रखने का प्रबंध करते आए हैं, तभी तो हमने नैतिकता सीखी, मर्यादा में रहना समझा और कानून तथा संविधान बनाए। साधना की यह विशेषता होती है कि वह हमारे लक्ष्य तक तो हमें ले ही जाती है साथ ही साथ हमें नियंत्रण और सामर्थ्य का फल भी देती है।
साधना के विषय में फिर प्रश्न थे कि क्या स्वयं पर नियंत्रण के अभ्यास के बिना जीवन नहीं चलेगा? और यदि नहीं चलेगा तो सभी साधना करते क्यों नहीं? साधना कोई दुर्लभ अवसर सा क्यों लगता है जिसकी आवश्यकता किसी-किसी को ही महसूस होती है? इन प्रश्नों के उत्तर के केंद्र में हमारे लक्ष्य ही हैं, यदि हमें लक्ष्य स्पष्ट है तभी हम प्रयासों का पथ चुनते हैं, जैसा लक्ष्य होता है उसी के अनुरूप हमें अपने प्रयासों को और स्वयं को अनुशासित रखना होता है। हमारा लक्ष्य चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक अथवा भले ही हम इसे कोई परिभाषा न दें लेकिन साधना तो हम सभी के जीवन में समय-समय पर होती ही रहती है। अपनी अभिरुचि, सामर्थ्य और परिस्थिति के अनुरूप ही व्यक्ति यह निर्णय करता है कि उसे किस प्रकार की साधना करनी है, यही तो कारण है कि हमारे लक्ष्य अलग-अलग हो जाते हैं, और संशोधित भी होते रहते हैं। सामान्य अभिरुचि, सामर्थ्य और परिस्थितियों का ही प्रभाव होता है कि कठिन साधना दुर्लभ होती है।
अब प्रश्न लेते हैं कि जीवन की सुविधायें और आराम जुटायें या साधना में जीवन बिताएँ? क्या साधना जीवन की आधारभूत आवश्यकता है भी? या वह स्वयं को विशेष बनाने का एक विकल्प है? इस सम्बन्ध में अनेक तथ्यों की तरह यह भी एक अनुभव किया हुआ तथ्य है कि सामान्यतः साधना जीवन को सरल करने के लिए, सामर्थ्यवान बनाने के लिए तथा दुखों और कष्टों को मिटाने के लिए ही की जाती है, इसलिए मानव जीवन के लिए ‘साधना’ शब्द भले ही विशेष अर्थों में प्रयुक्त होता हो लेकिन साधना की मूलभूत परिभाषा या पहचान तो जस की तस ही रहती है और वह है लक्ष्य की दिशा में प्रयास करते हुए स्वयं पर नियंत्रण का अभ्यास, जो कि सफल होने के लिए प्रत्येक को करना ही पड़ता है, उनको भी जो भौतिक सुख सुविधाओं या ख्याति की खोज में हैं और उनको भी जो आध्यात्मिक पथ पर शुद्ध चेतना के स्वरूप का साक्षात्कार या सिद्धि, योग, मोक्ष, कैवल्य, निर्वाण अथवा भक्ति का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं। साधना चाहे किसी भी लक्ष्य की दिशा में की जाए, सामर्थ्यवान बनाती ही है, उसके बिना सफलता प्राप्त करना लगभग असंभव है।
दो अन्य महत्वपूर्ण प्रश्न यह थे कि किसी साधक के लिए प्रेम का क्या महत्व है? और क्या प्रेम भी साधना का विषय है? प्रेम की परिभाषा तो हम प्रथम प्रसंग से ही प्रत्येक प्रसंग में दोहराते आए हैं और वह है कि “भावपूर्ण सम्बन्ध के निर्दोष अनुभव को प्रेम कहते हैं”, प्रेम का स्वरूप और महत्व इतना व्यापक है कि प्रेम का अनुभव किसी भी प्राणी, वस्तु या विषय के साथ सम्बन्ध में किया जा सकता है I किसी लक्ष्य को लेकर चल रहे किसी साधक को यदि लक्ष्य से प्रेम होगा तभी वह उसे पाने के लिए तब तक बढ़ता रहेगा जब तक उसे प्राप्त नहीं कर लेगा, और अपने प्रिय लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह प्रयासों से भी प्रेम करने लगेगा क्योंकि उसके प्रयास ही तो उसे लक्ष्य तक ले जाएँगे। अपने मार्गदर्शकों एवं सह-पथिकों से सहयोग प्राप्त करने वाला साधक उनके प्रति भी जुड़ाव, आदर तथा प्रेम का अनुभव करता है। भक्ति के स्वरूप और महिमा को यदि सामने रख कर देखा जाए तो प्रेम साधना का विषय तो है ही साथ ही स्वयं में एक साधन और साधना का फल भी है।
ऐसी सीढ़ी प्रेम की प्रेमी देत बनाय पंथी उतरे प्रेम में ज्यों-ज्यों चढ़ता जाय -II प्रेम सारावली II-
प्रेमी व्यक्ति का यही तो कौशल है कि वह प्रेम को ऐसी अद्भुत सीढ़ी का रूप दे देता है कि प्रेम के लक्ष्य की ओर बढ़ता हुआ पथिक जैसे-जैसे उस सीढ़ी पर चढ़ता जाता है वैसे-वैसे वह प्रेम के गहरे अनुभव में उतरता जाता है और अपने भाव-जगत में दृढ़ होकर प्रेम की महिमा को जान जाता है।
माया जिसको राह दे वही पथिक पथवीर संयम जिसमें प्रेम का सो प्रेमी मतिधीर -II प्रेम सारावली II-
अपने लक्ष्य से प्रेम करने वाले पथिक या साधक की लगन और प्रयासों से धीरे-धीरे ऐसी सामर्थ्य प्रकट होने लगती है कि सभी की परीक्षा लेने वाली प्रकृति की शक्ति माया भी उसकी सफलता के लिए रास्ता दे देती है, अपने लक्ष्य और प्रयासों से प्रेम करने वाले प्रेमी को जब प्रेम की शक्ति का आभास होने लगता है तब उसकी धारणा दृढ़ हो जाती है, उसका विश्वास प्रमाणित हो जाता है और वह प्रेम के भाव पर ठहरना सीख जाता है, उसकी बुद्धि प्रेम में स्थित हो जाती है।
लेकिन प्रकृति जब जटिल और विपरीत परिस्थितियों के रूप में किसी साधक की परीक्षा लेती है तब वह यह पाता है कि यह उसका मन ही है जो जब तक नियंत्रित है तब तक सहायक है, तभी तक प्रयासों में बल और बाधाओं से पार पाने का हौसला बना रहता है लेकिन मन के अनियंत्रित या विद्रोही होते ही परिस्थितियाँ विकट लगने लगती हैं, धैर्य डगमगाने लगता है और साधना बाधित हो जाती है, यही कारण है कि सभी साधक अपनी वृत्तियों और मन पर नियंत्रण का निरंतर अभ्यास करते रहते हैं, अब प्रश्न यह है कि मन पर नियंत्रण का अभ्यास सरलता से कैसे किया जा सकता है?
पंथी प्रेमी अनुभवी तर्क उसी का ठीक मन को लंगड़ा मत बना उसे झुकाना सीख -II प्रेम सारावली II-
मन पर नियंत्रण का अभ्यास ऐसे होना चाहिए कि स्वयं को कभी अपनी इच्छाओं का दमन ही न करना पड़े, कुछ ऐसी युक्ति लगाई जाए, ऐसा प्रबंध किया जाए कि मन और इच्छाओं में टकराव ही न हो। अपनी भावनाओं, अपने विचारों एवं व्यवहार में अनुशासन प्रेमपूर्वक भी प्राप्त किया जा सकता है। लक्ष्य चाहे भौतिक हो या आध्यात्मिक, प्रेम सभी प्रकार की साधना के लिए वरदान है, प्रेम एक उत्कृष्ट साधन भी है और महान लक्ष्य भी। मन अपने दमन का विद्रोह करता है लेकिन प्रेम के भाव के सामने सदैव नतमस्तक रहता है, मन प्रेम का बहुत सम्मान करता है, जब साधक भोलेपन के भाव में उतर कर अपनी चेतना से सहायता और सामर्थ्य माँगता है तो प्रकृति भी सहायक हो जाती है।
रुचियाँ अपनी साध ले प्रेम भाव कर भक्ति साथ जगत जब छोड़ दे देती साथ प्रवृत्ति -II प्रेम सारावली II-
भौतिक या आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर निकले साधक को प्रेम के भोले भाव का महत्व समझ लेना चाहिए। स्वयं पर नियंत्रण का अभ्यास तो प्रत्येक साधक को करना ही है तो बस इसे प्रेमपूर्वक कैसे किया जाए यह कला सीख लेने का प्रयास करना चाहिए। प्रेम का भोलापन रूचियों को बिगड़ने नहीं देता, वह हमारी प्रवृत्तियों को आकर्षक भी बना देता है और संतुलित भी। जीवन की कठिन परिस्थितियों में भी जब व्यक्ति को किसी अन्य व्यक्ति से सहयोग नहीं मिलता तब भी उसकी अच्छी प्रवृत्तियाँ उसकी सबसे बड़ी सहयोगी सिद्ध होती हैं।
रोए जो दुख से कभी कभी करे सुख भोग साधक यह साधन नहीं ऐसे पलते रोग -II प्रेम सारावली II-
भौतिक या आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर निकले साधक को परिस्थितियों के बहाव में स्वयं को बह जाने से रोकने का प्रयास करना ही पड़ता है, साधना के नियमों के प्रति अनुशासन तो साधना की रीढ़ है। साधक का अनुशासन ही उसे विपरीत परिस्थितियों में विचलित होने से भी बचाता है और सुखों में डूब कर पथ भ्रमित होने से भी बचाता है, वह साधक ही कैसा जो एक ओर तो प्रयासों से निर्बल हो और दूसरी ओर सुखों की लालसा लिए उनके भोग में तत्पर रहता हो। निर्बलता और सुख लोलुपता में तो रोग पला करते हैं।
इधर मुक्ति की खोज है उधर सुखों पर ध्यान
पहले चाह समेट ले फिर साधन को जान
-II प्रेम सारावली II-
भौतिक या आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर निकले साधक को यदि अपनी प्रवृत्तियों पर नियंत्रण पाना है तो यह तो बुद्धिमानी नहीं कि एक ओर तो संसार के कष्टों से मुक्ति का या मोक्ष का लक्ष्य हो साथ ही सुखों की वासना भी मन में बढ़ती रहे। साधक को चाहिए कि जितना जल्दी हो सके वह अपनी इच्छाओं का संसार छोटा कर ले फिर वह साधना की विधि को भी भली-भाँति समझ ले।
मैं मरुस्थल का कृषक संभावनाओं का जनक राह का चाह से मिलाप हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II-
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि मैं वह किसान हूँ जो मरुस्थल को भी प्रयासों से उपजाऊ सिद्ध कर देता है, मैं उज्ज्वल संभावनाएँ उत्पन्न करता हूँ, मैं लक्ष्य और प्रयास को पथ से जोड़कर उन्हें वास्तविक आधार देता हूँ, मैं राह का चाह से मिलन हूँ।
भौतिक या आध्यात्मिक लक्ष्य की ओर निकले साधक में और लक्ष्यहीन पुरुष में यह अंतर होता है कि साधक यह जानता है कि संसार के प्रत्येक लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है, आज नहीं तो कल, इस जीवन में नहीं तो किसी और जीवन में, लेकिन साधक का महारथ तो इसमें है कि वह प्रयासों में इतना ऊपर उठ जाने के बाद भी साधारण होना जानता है, वह होता तो विशेष है, होता तो वह प्रकृति और चेतना का दुलारा है लेकिन वह इसका दिखावा नहीं करता, वह सरलता को ही प्रकट करता है। और साथ ही वह यह भी जानता है कि संसार के सभी लक्ष्य प्राप्त कर लेने के बाद भी इस संसार में मिला कुछ भी सदा के लिए मेरा नहीं, अंत में यह शरीर भी मेरा नहीं, केवल मेरी विशुद्ध चेतना ही मेरा अंतिम परिचय और मेरा पूरी तरह से होना है, क्योंकि यह संसार जन्मों-जन्म बार-बार पीछे छूट जाता है, जैसे ही मैं इसे स्वीकारता हूँ यह फिर बदल जाता है।
पंथी पथ का मान कर प्रेमी ना इतराय राजपथिक प्रेमी नहीं गलियों गलियों जाय -II प्रेम सारावली II-
प्रेम पथ के साधक की और प्रेमी की विशेषता यह होती है कि अन्य लक्ष्यों की ओर निकले साधकों में तो अपने प्रयासों का, अपने साधन पथ का या अपने ज्ञान और कौशल का अभिमान आने की संभावना बनी रहती है लेकिन प्रेमी की साधना यात्रा में वह संभावना भी नहीं रहती, उसे न तो अपनी साधना का अभिमान होता है न ही अपने साधन पथ का, और हो भी कैसे? न तो प्रेम का पथ राजपथ है न ही प्रेमी कोई राजपथिक जहाँ वैभव के प्रदर्शन को स्वीकार किया जाए। प्रेमी तो उन गलियों का यात्री है जहाँ भीड़, यशोगान के गाजे-बाजों और महिमामंडन की जगह ही नहीं होती केवल अपने प्रियतम के संग की भोली और भावपूर्ण यात्रा होती है, जहाँ सुख के साधनों को ढो कर ले जाने की भी आवश्यकता नहीं होती।
प्रेम ज्ञान अति गूढ़ है अहं ज्ञान की फाँस प्रेम नदी का ढाल है प्रेम वृक्ष की साँस -II प्रेम सारावली II-
प्रेम का अनुभव जनित ज्ञान बड़ा ही सूक्ष्म और अद्भुत है, लेकिन अहंकार इस ज्ञान को प्राप्त करने में बाधक बन जाता है अतः अहंकार से बचने के लिए प्रेम के भोले भाव में उतकर इस प्रकार चिंतन करना चाहिए मानो प्रेम नदी के ढाल की तरह है जो उसे दिशा भी देता है और बहाव का वेग भी, नदी का अस्तित्व ही उस पर टिका है लेकिन वह छुपा हुआ रहता है। इसी प्रकार मानो प्रेम वृक्ष की साँस की तरह है जो इतनी विशाल होने के बाद भी शांत और गुप्त रहकर प्राणियों को प्राणवायु देती है।
मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि प्रत्येक मानव को प्रेम का ऐसा अनुभव मिले कि उसे समय रहते प्रेम का महत्व समझ में आ जाए, मानव जीवन प्रेममय हो जाए I
सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!
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