प्रेम-प्रश्नोत्तर-4: हमें भगवान क्यों चाहिए? क्या प्रेम से भगवान मिलता है?

प्रेम प्रश्नोत्तर की शृंखला में प्रश्न है कि हमें भगवान क्यों चाहिए? क्या प्रेम से भगवान मिलता है?

मानव की विचारशक्ति उसे समय-समय पर इस बात का संकेत और प्रमाण देती आई है कि इस ब्रह्माण्ड में मनुष्य की सत्ता सर्वोच्च नहीं है, प्रकृति के नियम उसकी सोच से भी कहीं अधिक व्यापक और जटिल हैं। मनुष्य की धारणा और उसके प्रयासों का ही परिणाम है कि उसने “ईश्वर” को इस जगत की सर्वोच्च सत्ता के रूप में स्वीकारा और उसे सृष्टि का रचयिता, परम सत्ता, जगत् पिता, ब्रह्म, भगवान आदि-आदि नामों से पुकारा। मनुष्य ने जब से यह जाना है कि भगवान होता है, तभी से वह उसकी खोज करता आया है। यदि आप भी भगवान की खोज में हैं तो क्या आपसे कभी किसी ने यह प्रश्न किया है कि “तुम्हें भगवान क्यों चाहिए?” या आपने स्वयं से कभी पूछा है कि” मैं भगवान को क्यों खोज रहा हूँ?”

          भारत में अधिकांश लोग आस्तिक हैं, उन्हें भगवान या आध्यात्मिक सत्ता के अस्तित्व पर कोई संशय नहीं। भारतीय जनमानस तो ईश्वर को उसके सभी रूपों में स्वीकार करता है। लेकिन संसार में अनेकों व्यक्ति ऐसे भी हैं जिन्हें भगवान का अस्तित्व ही काल्पनिक लगता है, ऐसे व्यक्ति अनीश्वरवादी कहलाते हैं, उनकी भगवान के सम्बन्ध में यह धारणा होती है कि इस ब्रह्माण्ड में ईश्वर या भगवान जैसी कोई सत्ता है ही नहीं, उनका मत है कि यह तो भ्रामक मान्यता है कि कोई भगवान होता है जो इस जगत को चलाता है। वे अनीश्वरवादी या अन्य व्यक्ति जो अपने दृष्टिकोण में इस सीमा तक पहुँच जाते हैं कि वे किसी भी आध्यात्मिक सत्ता और धार्मिक मान्यता को नहीं स्वीकारते नास्तिक कहलाते हैं।

मानव को भगवान क्यों चाहिए इसके कई कारण हो सकते हैं। सभी कारणों के मूल में मुख्य बात यह है कि भगवान को लेकर हमारी धारणा और दृष्टिकोण क्या है? यदि हमारी धारणा और दृष्टिकोण यह हो कि भगवान हमारे व्यक्तिगत जीवन से परे कोई सत्ता या शक्ति है और वह सहायक भी है, तो वह मिल जाए तो अच्छा ही है और न भी मिले तो भी ठीक है, उससे कुछ शक्तियाँ ही प्राप्त हो जाएँ तो कुछ लाभ हो जाए अन्यथा जीवन तो कटना ही है वह तो अन्य प्राणियों की तरह कट ही जाएगा, तब हम कह सकते हैं कि भगवान को लेकर हमारी धारणा और दृष्टिकोण अति साधारण हैं। लेकिन यदि हमारी धारणा और दृष्टिकोण यह हो कि भगवान वह सत्ता है जिसके हम अंश हैं या जो हमारे भीतर ही स्थित है लेकिन हमें उसका कोई अनुभव नहीं है और उससे सम्बन्ध का प्रत्यक्ष अनुभव किए बिना रहा ही न जाए, ऐसा लगे कि बिना उसके साक्षात्कार के यह जीवन जैसे कोई यातना है तब हम कह सकते हैं कि भगवान को लेकर हमारी धारणा और दृष्टिकोण विशेष और गंभीर हैं।

          यदि हम आस्तिक हैं और यह धारणा रखते हैं कि यदि हमारा अस्तित्व संभव है तो भगवान का भी अस्तित्व अवश्य ही है तो फिर हमें अपने जीवन के हर पड़ाव पर स्वयं से यह प्रश्न बार-बार करना चाहिए कि हमें भगवान क्यों चाहिए? ताकि ईश्वरीय सत्ता के सम्बन्ध में हमारी धारणा और दृष्टिकोण हमें स्पष्ट रहे, ताकि हम अपने और भगवान के अस्तित्व या उससे अपने सम्बन्ध को लेकर किसी भ्रम में न रहें। हम ईश्वर को किस रूप में मानते हैं यह हमारी व्यक्तिगत धारणा और दृष्टिकोण का विषय हो सकता है लेकिन कम से कम हमें यह तो स्पष्ट रहे कि ईश्वर की खोज हमारे लिए क्यों और कितनी महत्वपूर्ण है? और हमें उसे अपने जीवन में किस पराकाष्ठा तक प्रत्यक्ष करना है?      

          संसार भर में ईश्वर को लेकर सर्वाधिक प्रचलित धारणा यह है कि वह सर्वशक्तिमान है, सर्वसमर्थ है, सर्वव्यापी है, दयालु है, सर्वज्ञ है, प्रेमी है, वह सभी पर कृपा करता है और सभी का विधाता है। अपने ईश्वरीय गुणों के कारण ही ईश्वर को मनुष्यों द्वारा अपनाया जाता है और उनके द्वारा पूजा और खोजा जाता है। इस धारणा के आनुसार ईश्वर सगुण है। सगुण ईश्वर की धारणा में ईश्वर की पहचान और उसका महत्व उसके गुणों के कारण ही है, इन गुणों के न होने पर ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं किया जा सकता और न ही उसका महत्व। ईश्वर को लेकर एक अन्य, कम प्रचलित लेकिन विशिष्ट धारणा यह है कि ईश्वर सभी गुणों से परे, निर्गुण और निराकार है, वह समय से भी परे है और उसके सम्बन्ध में अंतिम सत्य यही है कि वह सदैव है।          

          सामान्यतः हम मनुष्यों को ईश्वर सगुण रूप में ही चाहिए। सामान्य जनमानस के हृदय में सगुण ईश्वर की धारणा ही सशक्त रूप से प्रतिष्ठित क्यों हुई, इसके स्पष्ट कारण हैं। पहला कारण यह कि सगुण ईश्वर के गुणों के कारण मानव स्वयं को उससे सहजता से जोड़ पाता है। दूसरा कारण यह कि मनुष्य उसे ही जान या समझ सकता है जो उसके सामने गुण, घटना या परिस्थिति के माध्यम से प्रकट या व्यक्त होता है। तीसरा कारण यह कि मनुष्य का सारा ज्ञान अनुभव आधारित ही है, अपने अनुभवों के द्वारा ही वह किसी वस्तु व्यक्ति अथवा घटना को या तो ‘प्रत्यक्ष’ रूप से जानता है या अपने ‘अनुमान’ से जानता है अथवा ‘आगम’ द्वारा अर्थात् किसी के द्वारा दिए गए ज्ञान और सूचना से जानता है।

          मनुष्य की बुद्धि में जब यह भली प्रकार स्थापित हो जाता है कि उसे भगवान क्यों चाहिए तब उसकी धारणा में ही भगवान की प्राप्ति का रास्ता प्रकट हो जाता है फिर वह चाहे ईश्वर को सगुण रूप में माने या निर्गुण रूप में। ईश्वर अपने सगुण रूप में प्रत्येक गुण से प्राप्त हो सकता है; वह दयालु और करुणावान है इसलिए वह प्रार्थना से प्राप्त हो सकता है, वह सर्वज्ञ है इसलिए उसे ज्ञान के रास्ते से भी प्राप्त किया जा सकता है, वह प्रेमी है इसलिए उसे प्रेम और भक्ति के द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, वह स्वामी है इसलिए वह दास के द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है, वह हर प्रकार से, हर ओर से प्राप्त होता है, उसे हम प्राप्त हैं इसीलिए वह हमें प्राप्त हो सकता है, हम हर परिस्थिति में सदा उसके हैं इसीलिए तो वह सदैव हमारा है। इसीप्रकार निर्गुण रूप में ईश्वर स्वयं प्राप्त है, सांसारिक अविद्या के हट जाने पर या माया रूपी शक्ति से प्रार्थना करने पर जीव का यह भ्रम मिट जाता है कि वह कभी ईश्वर से अलग भी था या उसका कोई अलग अस्तित्व भी था। निर्गुण ईश्वर की धारणा हमें यह सिखाती है कि व्यक्ति को अपने सीमित ज्ञान से और भ्रमों से पार जाने का प्रयास करना है।    

          भगवान को लेकर हमें अपनी धारणा को जाँचने या दृढ़ करने के लिए जीवन भर स्वयं से पूछना चाहिए कि क्या हमें भगवान इसलिए चाहिए ताकि हम अपने जीवन को उसकी कृपा से समर्थ और सार्थक बना सकें? या हमें वह इसलिए चाहिए ताकि हम अपनी इस जिज्ञासा को पूर्ण कर सकें कि भगवान का स्वरूप कैसा है? उसके गुण कितने महान हैं? उससे साक्षात्कार का अनुभव कैसा है? या फिर वह हमें इसलिए चाहिए ताकि हम जीवन से परे जाकर उसके साथ सदा के लिए एकाकार हो सकें? उसमें विलीन हो सकें ताकि उससे अलग हमारा कोई व्यक्तिगत अस्तित्व ही न रहे?

 अपने अल्पज्ञान की सीमाओं को समझते हुए मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि सभी जिज्ञासुओं को प्रेम के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों का स्पष्टता से उत्तर मिले तथा उन्हें प्रेम का ऐसा अनुभव प्राप्त हो कि उनका जीवन प्रेममय हो जाए I

सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!

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