प्रेम प्रश्नोत्तर की शृंखला में प्रश्न है कि क्या प्रेम पापों को मिटा सकता है?
जब कोई व्यक्ति अपने कर्मों के प्रति संवेदनशील होता है तो वह इस बात का ध्यान रखता है कि उसके द्वारा कुछ भी बुरा न हो जाए, लेकिन प्रकृति की व्यवस्था इतनी जटिल और व्यापक होती है कि बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति भी कभी न कभी अपने जीवन में पश्चाताप का क्षण अवश्य देख लेता है। पश्चाताप का होना दो बातों की पुष्टि करता है; एक तो यह कि व्यक्ति यह स्वीकार कर चुका है कि गलती तो हुई है और दूसरी यह कि अब व्यक्ति सुधार की राह खोज रहा है। अपनी विवेकशक्ति से मनुष्य ने अपने कर्मों को सही-गलत, अच्छा-बुरा, पाप और पुण्य में वर्गीकृत किया। मनुष्य ने सही को, अच्छे को और पुण्य को अपनाने का लक्ष्य बनाया, उसने गलत का, बुरे का और पाप का निषेध किया और अपने सभी लक्ष्यों के लिए उसने विधियों और रास्तों को खोजा।
भूलसुधार की तीव्र लालसा रखने वाले मनुष्य को जब अपनी भूल को सुधारने का अवसर मिल जाता है तो कैसी राहत होती है यह उसका हृदय ही जानता है लेकिन व्यक्ति के कर्माशय में पड़ी हुई सभी भूलों को समय रहते सुधार का अवसर मिल जाए यह भी बहुत बड़ी बात है, जाने कितनों को तो अपने जीवन में यह अवसर ही सुलभ नहीं होता और जाने कितनों को तो ऐसे किसी अवसर की तलाश ही नहीं होती। सामान्य धारणा तो कहती है कि जीवन की गतिशीलता को इतना अवकाश ही कहाँ जो पश्चाताप के फेर में अटकी रहे? जीवन में कर्मों का काम चलाऊ संतुलन ही मिल जाए इतना ही बहुत है, फिर सभी की मानसिकता और इच्छाशक्ति भी एक जैसी नहीं होती, कुछ लोग अपनी भूलों के प्रति गंभीर होते हैं तो कुछ लोग नहीं भी होते। इस तथ्य को सभी स्वीकारें या न स्वीकारें लेकिन यथार्थ यही है कि जिस व्यक्ति को अपनी भूलों का एहसास होता है उसमें ही इतनी सामर्थ्य होती है कि वह सुधार के सिद्धांत को पचा ले, उसे अपने जीवन में उतार पाए।
पाप कहते किसे हैं? क्या कोई सहज भूल या गलती ही पाप है? या पाप उससे कुछ अधिक गंभीर विषय है? तार्किकता की तुला पर तोल कर देखा जाए तो पहली बात तो यह है कि कोई सहज भूल या छोटी गलती मन में इतना उद्वेग पैदा नहीं कर सकती कि घोर पश्चाताप होने लगे, और दूसरी बात यह है कि व्यक्ति किन परिस्थितियों में किस भूल या गलती के लिए कितना संवेदनशील होगा यह तो उसी व्यक्ति की मानसिकता और विवेक पर निर्भर करता है। लेकिन बात अब इतनी भी जटिल नहीं रह गई है, मानव बुद्धि ने इसे सुलझा लिया है। अब यह लगभग प्रत्येक परिस्थिति में सिद्ध किया जा सकता है कि क्या अपराध है और क्या नहीं। आधुनिक समाज में ‘पाप’ की धारणा का स्थान ‘अपराध’ की धारणा ने ले लिया है कारण यह है कि अपराध की धारणा को कानून और नीतिशास्त्र के साथ-साथ धार्मिक अर्थों में भी अपनाया गया लेकिन पाप की धारणा को कर्मों के सम्बन्ध में केवल धार्मिक परिप्रेक्ष्य में ही अपनाया गया। इस स्पष्टता के साथ हम यह कह सकते हैं कि पाप वह अपराध है जिसे व्यक्ति कर्मों के सिद्धांत पर चलते हुए गंभीर मानता है और इस सम्बन्ध में वह यह भी मानता है कि अपनी भूल को सुधार कर ही उसकी वास्तविक उन्नति संभव है।
अब हम इस प्रश्न के उत्तर पर पहुँच रहे हैं कि क्या प्रेम पापों को मिटा सकता है? प्रेममय जीवन के प्रत्येक प्रसंग में हम प्रेम के स्वरूप और उसके प्रभावों को जानते आए हैं, जिस प्रेम के प्रभाव में चित्त निर्मल हो जाता हो, बुद्धि प्रकाशित हो जाती हो, मन सहायक हो जाता हो, जिस प्रेम के प्रभाव में कितने ही दुर्जन सज्जन बन गए हों, जिस प्रेम के प्रभाव में कितने ही क्रोधी और अहंकारी लज्जित हो कर दास बन गए हों, जिस प्रेम के प्रभाव में कितने ही चतुर बुद्धि वाले भोले-भाले बन गए हों, जिस प्रेम के वशीभूत होकर परम चेतन भी अपने भक्त के समक्ष नतमस्तक हुआ हो, जो प्रेम मानव जीवन को समय की धरोहर बना देता हो, वह प्रेम क्या किसी को पापमुक्त न कर सकेगा? प्रेम अपनी सूक्ष्म और चैतन्य अवस्था में जीव की चेतना को देह के धर्मों से भी परे ले जाता है। प्रेम कर्मों को शुद्ध करके संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण को स्वयं में विलीन कर लेता है, अपने व्यापक रूप में प्रेम प्रेमी को पाप और पुण्य दोनों से परे ले जाकर चैतन्यता के अनुभव में स्थित कर देता है।
व्यक्ति को यदि अपने पापों से परे जाना है तो उसे अपने सभी पुण्यों से भी परे जाना होगा, तभी वह कर्म और उसके फल के प्रवाह से तटस्थ हो सकेगा, कर्म की यह गहन विशेषता प्रेमी जानता है। प्रेमी यह भी जानता है कि कर्म का सिद्धांत बड़े-बड़े ज्ञानियों की भी परीक्षा ले लेता है और विवेकवान को भी चकित कर देता है इसीलिए प्रेमी भोले भाव में अचल होने का अभ्यास करता है और स्वयं को कर्त्ता के रूप में ढलने ही नहीं देता। वह विशुद्ध चेतना को अपने प्रियतम के रूप में देखता है और प्रकृति को प्रेम भाव से अपने प्रियतम की सहायक के रूप में, फिर संसार का कोई भी कर्म उसके लिए स्वतंत्र रूप से कर्म नहीं रह जाता बल्कि प्रेम का ही रूप हो जाता है, ऐसी अवस्था में प्रेमी कर्म के नाम पर केवल प्रेम का ही व्यवहार बरतता है, वह प्रेम को ही जीता है और प्रेम को ही भोगता है किसी कर्म या उसके फल को नहीं, इसप्रकार प्रेमी न तो पुण्य के फेर में पड़ता है और न ही पाप के। प्रेमी की दृष्टि ही विशेष होती है वह केवल प्रेम की ही सत्ता को स्वीकारती है और कुछ तो उसकी दृष्टि में टिकता ही नहीं।
अपने अल्पज्ञान की सीमाओं को समझते हुए मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि सभी जिज्ञासुओं को प्रेम के सम्बन्ध में उठने वाले प्रश्नों का स्पष्टता से उत्तर मिले तथा उन्हें प्रेम का ऐसा अनुभव प्राप्त हो कि उनका जीवन प्रेममय हो जाए I सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!