प्रेम और पूजा; प्रेमी और प्रियतम का सम्बन्ध
सभ्यताओं और संस्कृतियों के विकास के साथ-साथ मानव ने स्वयं को अपने आसपास के जीवों से, वस्तुओं और घटनाओं से जोड़ना सीखा। मनुष्य ने यह जान लिया कि स्वयं की चेतना से जुड़कर स्वयं को गहराई से जाना जा सकता है। स्वयं को सभी से जोड़ लेने के कौशल से वह यह भी जान गया कि जहाँ प्रत्यक्ष जुड़ाव न हो सके वहाँ भी परोक्ष रूप से तो जुड़ा ही जा सकता है, तभी तो तर्क, धारणा, समर्पण और प्रेम के माध्यम से मनुष्य स्वयं को उससे भी जोड़ लेता है जिसे वह पूजता है, भले ही, उससे मिला न हो, उसे प्रत्यक्ष रूप से कभी देखा भी न हो।
प्राचीन काल से ही जनमानस के हृदय में समय-समय पर यह प्रश्न उठता रहा है कि मनुष्य पूजा क्यों करता है? पूजा करने का महत्व क्या है? क्या पूजा करना सभी के लिए आवश्यक है? आप क्या कहेंगे यदि कोई पूछ ही बैठे कि कहीं तुम्हारी पूजा का कारण तुम्हारे सामान्य स्वार्थ तो नहीं? कहीं तुम्हारी पूजा का कारण तुम्हारे भय तो नहीं? क्या तुम्हारे आदर भाव ने तुम्हें किसी को पूजने की प्रेरणा दी? या तुम किसी के प्रेम में उतर कर उसे पूजने लगे हो?
वैसे तो विश्व की प्रत्येक संस्कृति ने पूजा पद्धतियों को अपनाया है और पूज्य को सर्वोच्च मान्यता दी है, लेकिन कुछ स्थान हैं जहाँ मनुष्य की धारणा उसे आश्चर्य और आदर के शिखर तक ले गई। भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है जहाँ चेतना के अनुभव को अभूतपूर्व गहराई और ऊँचाई प्राप्त हुई। तत्व बोध और अनुभव के अद्भुत संगम से एक ओर योग का विज्ञान स्थापित हुआ वहीं दूसरी ओर पूजा पद्धति का विकास हुआ। भारत ने तो आदर भाव, कृतज्ञता और पूजा की संस्कृति के उच्चतम बिन्दु को छू लिया है। भारत ने वृक्ष को भी पूजा, नदी को भी, पूर्वजों को भी पूजा, माता-पिता और संततियों को भी, प्रेम को भी पूजा, पत्थर को भी, पशु-पक्षियों को भी पूजा, देवताओं को भी, गुरु को भी, काल को भी, जन्म और मृत्यु को भी, जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश को भी, ग्रहों को भी, लक्ष्य को भी, पथ को भी, भोजन को भी। धन्य है भारत की भावना जहाँ सबको आदर मिला, जहाँ अस्तित्व के सभी रूपों को पूजा गया।
प्रेममय जीवन के इस प्रसंग में हम मानवीय प्रेम का मनुष्यों द्वारा की जाने वाली पूजा से तथा प्रेमी और प्रियतम के आपसी सम्बन्ध को जानने का प्रयास करेंगे ताकि हम विश्वास और धारणा के रहस्य और उनके वास्तविक महत्व को समझ सकें।
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो काव्यात्मक पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं ।
मनुष्य की धारणा और कल्पनाशीलता ने प्रेम के अनुभव से लेकर पूजा पद्धति के विकास तक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। किसी को पूजने के लिए उसके प्रति जिस आदर की आवश्यकता होती है वह कई कारणों से उत्पन्न हो सकता है जैसे कि उस सत्ता, वस्तु या व्यक्ति के महत्व को स्वीकारने से, उसके प्रति कृतज्ञता से, अपने आश्चर्य और उस शक्ति के रहस्य के सम्मुख आत्म-समर्पण से, किसी दैवीय प्रकोप से बचने की मानसिकता से और प्रेमपूर्ण जुड़ाव से।
अति प्राचीन काल से ही मनुष्य प्रकृति की शक्तियों और पूर्वजों के योगदान को महत्व देता आया है। यही कारण है कि विश्व की लगभग सभी संस्कृतियों में प्रकृति की शक्तियों की पूजा और पूर्वजों की पूजा प्रचलित हुई। प्रकृति को तो मनुष्य ने प्रत्यक्ष शक्ति ही माना और उसके भिन्न-भिन्न तत्वों जैसे सूर्य, जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश को देवत्व के रूप में पूजा। इस प्रकार हम पाते हैं कि मनुष्य के जीवन में प्रकृति के प्रति जन्मा आदर भाव उसे देवताओं के लोक तक ले गया। पूर्वजों की पूजा करने का आधार भी उनके जीवन को महत्व और आदर देना ही है तभी तो मृत्यु के सत्य को स्वीकारते हुए भी प्रत्येक परिवार बीते हुए जीवन को सम्मान देता है। कई संस्कृतियों में पितृ पूजा का आधार यह आदरपूर्ण मान्यता भी है कि स्थूल शरीर का अंत ही अस्तित्व का अंत नहीं।
किसी के प्रति कृतज्ञता और अतुलनीय आभार की भावना जब प्रगाढ़ हो जाती है तो व्यक्ति विनम्र होकर उसके समक्ष स्वयं को झुका देता है, तब वह यह स्वीकार लेता है कि मेरे स्वयं के अहं से ऊपर भी कुछ है जिसे सम्मान दिया जाना चाहिए, और यह स्वीकारोक्ति तब स्वतः ही होती है जब मनुष्य को किसी सहायता की आवश्यकता हो और उसे वह बिना शर्त प्राप्त हो जाए या फिर तब जब व्यक्ति इस बात का अनुभव करे कि उसके जीवन की सफलता और सुगमता किसी विशेष कृपा से ही संभव हो सकी है जिसका आभार कृतज्ञता से भरी पूजा से ही प्रकट किया जा सकता है।
अपनी बौद्धिक क्षमता के प्रारम्भिक विकास-काल से ही मनुष्य प्रकृति में हो रही घटनाओं के अनसुलझे रहस्यों को खोजता आया है, और इस क्रम में वह बार-बार आश्चर्य से भर उठा है, यह देखकर कि जिन रहस्यों को वह इतने प्रयासों के बाद खोज पाया उन्हें इतना रहस्यमय अस्तित्व किसने दिया? प्रकृति और चेतना तो रहस्यों का असीमित भंडार जान पड़ते हैं जिन्हें खोजते-खोजते मनुष्यों की कितनी ही पीढ़ियाँ बीत गईं और यह खोज शायद कभी खत्म भी न हो। यह स्थापित होते ही कि मनुष्य की शक्ति प्रकृति और चेतना की समग्र शक्ति के सामने बहुत छोटी है, मनुष्य प्रकृति और असीम चेतना के सम्मुख आत्म-समर्पण के भाव से भर उठता है वह अपने आश्चर्य की वेला को पावन अवसर बना कर प्रकृति और चेतना की शक्ति के सम्मुख आत्म-समर्पण कर देता है, वह उसे पूजता है।
अपने जीवन में भय का अनुभव तो प्रत्येक प्राणी कभी न कभी करता ही है, लेकिन मनुष्य का भय उसे समाधान के कई आयामों में ले गया। अपने विवेक और साहस से मनुष्य ने भय का डटकर सामना भी किया और समय-समय पर अपने भय पर विजय भी प्राप्त की, लेकिन अपने अनुभवों के संसार में मनुष्य ने जब-जब यह पाया कि संयोग और प्रारब्ध उसकी सामर्थ्य से ऊपर हैं और यदि उसके प्रयासों को समय की अनुकूलता और दैवीय कृपा प्राप्त हो जाए तो वह सफल और भय से सुरक्षित हो जाएगा इस कारण भी मनुष्य संयोग और दैवीय सहयोग के समक्ष समर्पण का भाव रखता आया है, वह उन्हें पूजता आया है।
प्रकृति और चेतना के प्रति प्रेमपूर्ण जुड़ाव मनुष्य के द्वारा की जाने वाली पूजा का सबसे समृद्ध, और सशक्त आधार बना। भावपूर्ण सम्बन्ध का निर्दोष अनुभव अर्थात् प्रेम ही भक्ति का आधार बन कर उभरा। प्रेम के सूक्ष्म अनुभव और धारणा भक्त को अपने प्रियतम, इष्ट या आराध्य के साथ कई प्रकार के सम्बन्धों की ओर ले जाते हैं। अपने प्रियतम के प्रति सखा भाव, दास भाव, वात्सल्य भाव या बंधु भाव रखते हुए मनुष्य ने व्यक्त रूपों को तो अपने प्रेममय संसार में पूजा ही है, साथ ही प्रेम के अनुभवों के शीर्ष पर पहुँच कर चेतना के असीम और अव्यक्त रूप का दुर्लभ अनुभव भी प्राप्त किया है। प्रेम की इस अवस्था की यह विशेषता होती है कि इस अवस्था में प्रियतम की ऐसे पूजा होती है, जिसमें पद्धति की आवश्यकता नहीं रहती, वह किसी बाह्य नियम को स्वीकारती ही नहीं वह केवल चेतना का स्वच्छ आँगन खोजती है, वहीं स्वीकार्य होती है।
प्रेमी पूजे प्रेम को चेतन मूरत मान प्रियतम की सूरत धरे प्रेम रूप भगवान -II प्रेम सारावली II
प्रेम के विशुद्ध भाव का निरंतर अनुभव करने वाला प्रेमी प्रेममय चेतना को कल्पना के संसार में नहीं बल्कि मूर्त रूप में पूजना चाहता है। प्रेम के भाव को अपने प्रियतम पर प्रतिबिंबित करते हुए प्रेमी स्वयं को अनंत चेतना से जोड़ लेता है। इस साकार चैतन्य स्वरूप को भक्त अपने भाव-संसार में प्रियतम के रूप में भी देखता है, और इष्ट, आराध्य और भगवत् स्वरूप में भी।
अद्भुत दर्पण प्रेम का मन के भाव दिखाय प्रेमी जो झाँके दरस प्रियतम का हो जाय -II प्रेम सारावली II
प्रेम का दर्पण ऐसा विलक्षण है जो मन के भावों और सम्बन्ध की गहराई को दिखा देता है। प्रेमी के चित्त में उभरा हुआ यह दर्पण उसे अपने भीतर ही प्रियतम का दर्शन करा देता है, और इस प्रकार प्रेम प्रेमी को प्रियतम के सदा सम्मुख रखता है, जोड़े रखता है।
एक प्राण दो देह में यही प्रेम का लेख जहाँ दिखे प्रेमी वहीं पंथी प्रियतम देख -II प्रेम सारावली II-
प्रेम के भाव लोक में प्रेमी और प्रियतम एक दूसरे से कभी अलग नहीं रहते, जहाँ प्रेमी है वहीं प्रियतम भी है। प्रेमी और प्रियतम में रूप और गुणों की दृष्टि से जो भी भिन्नता दिखाई देती है वह प्रकृति के कारण है। चेतना की एकरूपता इस भेद को प्रेमी के हृदय में पहले ही समाप्त कर चुकी होती है। प्रेममय चेतना प्रत्यक्ष न होने पर ही प्रेमी और प्रियतम अलग-अलग दिखाई देते हैं, चैतन्य प्रेम की अवस्था में तो रूप और गुणों के भेद मिट जाते हैं।
प्रेमहीन जाने नहीं प्रियतम कैसा, कौन? सुनता मन के भाव जो बोले हो कर मौन -II प्रेम सारावली II-
भावपूर्ण सम्बन्ध का निर्दोष अनुभव ही प्रेममय चेतना से साक्षात्कार करा देता है, प्रेम की सूक्ष्म अवस्था में ठहरा हुआ प्रेमी व्यक्ति ही प्रियतम के साथ उस जुड़ाव को जान सकता है जहाँ शब्द भी ठीक से नहीं पहुँच पाते, और न भी पहुँचे सो भी ठीक, उनकी आवश्यकता भी जो नहीं रहती। मौन ही पर्याप्त है अपनी बात समझा देने के लिए, प्रेम का यह सिद्धांत प्रेमी जानता है।
मैं पूजा, मैं शंखनाद मैं शुद्ध भावना का प्रसाद दिव्य-सरिता स्नान हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II-
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि मैं प्रियतम की पूजा ही तो हूँ, मैं ही पूजन की सामग्री भी हूँ जिसके द्वारा भाव अर्पित होता है, और मैं ही अन्तः जगत के क्लेशों को मिटा देने वाली शुद्ध भावना का प्रसाद भी हूँ। मैं भावों की दिव्य सरिता में उतर कर किया जाने वाला वह स्नान हूँ जो देह की सूक्ष्म अशुद्धियों को भी दूर करके पवित्र बना देता है।
प्रेम पवन झूमे बहे नापे नभ का छोर प्रेमी उड़े पतंग बन प्रियतम थामे डोर -II प्रेम सारावली II-
स्वतंत्र आकाश की ऊँचाई की ओर बहती हुई प्रेम रूपी पवन के साथ-साथ प्रेमी प्रेममय चेतना का साक्षात्कार वैसे ही करता है जैसे कि हवा में उड़ती हुई पतंग जो कि उड़ती तो हवा के साथ है लेकिन नियंत्रित उसे उड़ाने वाले के द्वारा होती है। प्रेम की इस उड़ान में प्रेमी चेतना के स्वतंत्र आकाश को भी प्रत्यक्ष कर लेता है और इस बात का अनुभव भी कर लेता है कि उसकी उड़ान प्रियतम की सहायता से ही संभव हुई है।
जीत हार का रचयिता प्रेमी का भगवान प्रेम-पराजय जो चुने उसको प्रियतम जान -II प्रेम सारावली II-
प्रेमी जब स्वयं को अपने प्रियतम को सौंप देता है तो प्रियतम का यह कर्तव्य हो जाता है कि वह प्रेमी का पूरा ध्यान रखे, यह सम्बन्धों की बड़ी व्यावहारिक, प्रमाणित और सूक्ष्म बात है। यह वैसे ही है जैसे किसी मासूम बच्चे को जब किसी के हवाले कर दिया जाए तो वह व्यक्ति स्वतः ही यह सोच कर उसके रख-रखाव का प्रबंध करने लगता है कि उसके सिवाय उस बच्चे का कोई और सहारा नहीं। भावपूर्ण सम्बन्ध स्थापित होने पर व्यक्ति किसी दूसरे की प्रसन्नता के लिए अपने स्वार्थों को भूल जाता है, वह स्वयं को पराजित देख कर भी संतुष्ट रहता है क्योंकि वह जिम्मेदारी भरे प्रेम का अनुभव जो करने लगता है। इसलिए प्रेम जगत में प्रियतम की कृपादृष्टि पाना कोई कठिन कार्य नहीं, आवश्यकता मात्र इतनी होती है कि हम स्वयं को हृदय से सौंपना सीख लें, हम निष्ठावान होना सीख लें।
प्रेमी की दुविधा हरे अपने नियम मिटाय प्रियतम से अच्छी भला जग में कौन निभाय? -II प्रेम सारावली II-
प्रेम इस संसार में बनने वाले प्रत्येक नाते का सबसे सशक्त रूप है। प्रेमी का इष्ट, आराध्य या प्रियतम प्रेमी के प्रति अतुलनीय उत्तरदायित्व का वहन कर सकता है इसलिए प्रेमी प्रियतम के प्रति समर्पण का भाव रखते हुए आश्रित होता है। प्रियतम की यह विशेषता होती है कि वह प्रेम के निर्वहन के लिए और अपने आश्रित हुए प्रेमी के हितों के लिए अपने नियमों की भी परवाह नहीं करता और प्रेमी के प्रति प्रेमी की आशा से भी अधिक समर्पित रहता है।
हारो प्रियतम प्रेम में विनती बारम्बार सदा विजेता ही करो प्रेमी को सरकार -II प्रेम सारावली II-
जब कोई प्रेमी अपने प्रियतम की पहचान कर लेता है तो फिर उसे प्रियतम को अपने हृदय में आश्रय देने में और प्रियतम का आश्रय लेने में देर नहीं लगती। समर्पण का यह दृश्य मानव के भावनात्मक जीवन का सबसे सुंदर दृश्य है, भाव जगत का यह शीर्ष बिन्दु है, यह अनुभवों का वह शिखर है जहाँ सम्बन्ध ही पूजन हो जाता है। प्रेमी और प्रियतम प्रेम के चिर साक्षी हैं। प्रेम के आयाम में पूजा को भी रूप मिल जाता है और समर्पण को भी। मेरी चैतन्य स्वरूप प्रियतम से यह प्रार्थना है कि प्रत्येक प्राणी पर वह सदैव अपनी कृपा दृष्टि बनाए रखे और प्रेम में पराजित होने की अपनी विशेषता का अनुभव प्रत्येक प्रेमी को कराए।
सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!
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