प्रेम; मान-अपमान और अपशब्दों से परे
आपसे यदि पूछा जाए कि क्या आप अपने समाज में मान-अपमान की भावना से भरे हुए दृश्यों, संवादों और अपशब्दों से परिचित हैं? तो संभवतः आप कहेंगे कि हाँ, परिचित हैं, ये हमारे सामाजिक जीवन का हिस्सा जो बन चुके हैं। विश्व के किसी भी भू-भाग पर रहने वाला और कोई भी भाषा बोलने-जानने वाला व्यक्ति सामान्यतः उस भाषा में प्रचलित अपशब्दों से परिचित तो होता ही है भले ही वह स्वयं उनका प्रयोग न करता हो। तो फिर क्या आपने कभी इस बात पर भी मनन किया है कि मान-अपमान, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार और घृणा को दर्शाते हुए बोले जाने वाले अपशब्दों का मानव जीवन पर क्या प्रभाव होता है? आपको यह प्रभाव मामूली लगता है या गंभीर?
ऐसा नहीं है कि अपशब्दों का प्रयोग केवल मान-अपमान, ईर्ष्या, द्वेष, अहंकार और घृणा को दर्शाने के लिए ही किया जाता हो, वर्तमान मानव समाज में तो अपशब्द हास्य-व्यंग के संवादों और अतिघनिष्ठता को दर्शाने में भी प्रयुक्त होते हैं। विश्व भर में दशकों से यह क्रम चला आ रहा है कि युवावस्था तो जैसे अपशब्दों की प्रयोगशाला बन जाती है जहाँ अपशब्दों का बहुआयामी प्रयोग सीख कर उनका अभ्यास भी कर लिया जाता है। इस सम्बन्ध में अधिक गंभीर प्रश्न यह है कि मानव व्यवहार की कौन सी प्रवृत्तियाँ हैं जिनके कारण विश्व की प्रत्येक भाषा में अपशब्दों और घृणित गालियों को स्थान मिल गया? प्रेममय जीवन के इस प्रसंग में हम प्रेम की उस अद्भुत महिमा और शक्ति को जानेंगे जो व्यक्ति को मान-अपमान और अपशब्दों से अप्रभावित रखते हुए विपरीत परिस्थितियों एवं व्यक्तियों के बीच रहकर भी सफल और प्रभावी जीवन प्रदान करती है।
अपने जीवन के अनुभवों से, थोड़े प्रयासों और संतों की कृपा के प्रसाद स्वरूप, प्रेम के सम्बन्ध में मुझ अल्पज्ञानी ने जो कुछ भी जाना है, उसे मैंने अभ्यास के लिए दो काव्यात्मक पुस्तकों “प्रेम सारावली”एवं “मैं प्रेम हूँ”के रूप में संकलित कर लिया है, मेरी बातों का आधार यही दो पुस्तकें हैं
सामान्यतः एक मनुष्य अपने सामाजिक और पारिवारिक जीवन में मान-अपमान के पलों से दो-चार होता रहता है। जब व्यक्ति स्वयं को अपमानित पाता है या फिर किसी अपने को अपमानित होता हुआ देखता है तब वह उस अपमान का अपनी सामर्थ्य से विरोध करना तो तत्क्षण चाहता है लेकिन वह ऐसा सफलता पूर्वक कर पाता है या नहीं यह व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता के साथ-साथ समय की अनुकूलता पर भी निर्भर करता है। समय अनुकूल न होने पर व्यक्ति या तो अपमान का घूँट पी कर रह जाता है या फिर इस अपमान को परिस्थितियों की यातना अथवा कठोर सीख के रूप में देखता है वहीं दूसरी ओर बिना सोचे समझे अपमान का प्रतिकार करना कभी-कभी पश्चाताप का कारण भी बन जाता है या फिर घातक भी सिद्ध हो जाता है। यही कुछ कारण हैं जो मनुष्य के मन में ऐसे प्रश्न जगाते आए हैं कि मान-अपमान की जड़ क्या है? और इसके हानिकारक प्रभावों से कैसे बचा जाए?
शारीरिक और बौद्धिक क्षमता के विकास ने मनुष्य के जीवन में ऐसी क्रांति को जन्म दिया जिसने मानव समाज को सदैव के लिए प्रगतिगामी बना दिया। मनुष्य प्रगति का ध्वजवाहक बन कर उभरा, मानवता प्रगति और विकास की अपार संभावना की वाहक हो गई। मानव ने भाषा का आविष्कार किया, उसकी समझ ने ध्वनियों में अर्थ खोज लिए, उसने ध्वनियों को अपने कण्ठ से उच्चारित करना भी सीखा और उन्हें लिपिबद्ध भी किया। ध्वनियों को दर्शाने वाले शब्दों को उसने बोल-बोल कर और लिख-लिख कर व्याकरण के सूत्र बना लिए जिनसे भाषा समृद्ध हो गई। फिर मनुष्य यहीं नहीं रुका उसने शब्दों को गीतों और निबंधों में ढाला, मुहावरे बनाए और भाव को सूक्ष्म से सूक्ष्मतर रूप से प्रकट करने योग्य बनाया। उसने अपने मस्तिष्क में उठने वाले प्रत्येक भाव को शब्दों में गढ़ा और अर्थों में बाँटा, उसने शब्दों के माध्यम से प्रेम को भी प्रकट करना सीखा और घृणा को भी, उसने स्तुतियाँ भी रचीं और गालियाँ भी।
मनुष्य के मन मस्तिष्क में उठने वाले विचार भाषा के साँचों में ही विकसित होते हैं। इसका अर्थ यह है कि हम जब भी कुछ सोचते हैं तो किसी न किसी भाषा में ही सोचते हैं और किसी न किसी भाव या भावना के अनुरूप ही सोचते हैं अतः हम कह सकते हैं कि विचार एक ओर तो भाव-भावनाओं से जुड़े होते हैं और दूसरी ओर भाषा से। विचार ही वह कड़ी है जो भावनाओं को भाषा के साथ गूँथ कर उन्हें रूपमय बना देता है। इसी संदर्भ में मेरा यह भी मानना है कि हमारी प्रवृत्तियाँ हमारी सोच और भाषा को प्रभावित करती हैं तथा उनसे प्रभावित भी होती हैं, प्रवृत्तियों का भी अपना एक व्याकरण होता है जिसमें विचारों के माध्यम से भाषा का भी समायोजन हो जाता है और भाव-भावनाओं का भी। प्रवृत्तियाँ विचारों और भाव-भावनाओं से भी सूक्ष्म हैं। भाषा के सामाजिक अनुप्रयोग की दृष्टि से देखा जाए तो अमर्यादित प्रवृत्तियाँ ही विचारों के माध्यम से शब्दों को दूषित कर के उन्हें अपशब्दों का रूप दे देती हैं।
मान-अपमान और अपशब्दों की जड़ को खोजते-खोजते हम विचारों से प्रवृत्तियों तक पहुँच गए हैं। वास्तव में यदि देखा जाए तो हमारी प्रवृत्तियाँ, हमारे अनुभव और उनके अनुरूप व्यवहार ही हमारे जीवन को वह रूप दे देते हैं जिससे हमारी व्यक्तिगत पहचान तय हो जाती है। हमें कौन सी बात कितने जल्दी प्रभावित कर जाएगी यह हमारी सोचने की प्रवृत्तियों पर ही निर्भर करता है। हम अपने अहं को कितने जल्दी चोटिल हुआ या संतुष्ट हुआ देखते हैं, यह हम अपने आसपास के परिवेश और परिवार में रहकर ही तो सीखते हैं। जब किसी परिवार या समाज में बच्चों और किशोरों को तो छोड़िए वयस्कों और बुजुर्गों को भी छोटी-छोटी बातों में मान-अपमान देखने की आदत हो जाती है तो उस परिवार और समाज की सफलता और समृद्धि के लिए ये अच्छे संकेत नहीं होते। हमें इस तथ्य की ओर भी ध्यान तो देना ही चाहिए कि मान-अपमान भरे विचारों और भावनाओं में उलझे रहकर मनुष्य की बुद्धि पर अनावश्यक दबाव पड़ता है।
अपशब्दों का एकमात्र उद्देश्य निरादर करना है, किसी की अस्मिता पर कुठाराघात करना है ताकि स्वयं का अहं पोषित किया जा सके, ताकि अपने सामर्थ्य का परिचय दिया जा सके और यही तो कारण है कि अधिकांश अपशब्दों और गालियों में किसी की माँ, बहन, बेटी या निजी अंगों के प्रति हिंसा और घृणा के भाव होते हैं, और यह किसी एक भाषा का नहीं बल्कि विश्व की सभी प्रचलित भाषाओं का कटु सत्य है। मेरी दृष्टि में तो यह पूरे विश्व के लिए गंभीरता से विचारणीय है कि हिंसा और घृणा का किसी माँ, बहन, बेटी या निजी अंगों से क्या सम्बन्ध बन गया? उन्हें किस कारण गालियों में स्थान मिला? यह मनुष्य की कौन सी प्रवृत्ति है जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी आज तक पलती आई है? अपनी खीझ, घृणा और अहं को दर्शाने के लिए यह मानव द्वारा की जाने वाली एक अधिक गंभीर गलती है।
अपशब्दों और घृणित गालियों के संसार में जिसने जागरूक हो कर ठीक से भ्रमण कर लिया हो वह इस तथ्य को कैसे ठुकरा सकेगा कि अपशब्दों का प्रयोग किसी के हित में नहीं? अपशब्द अपनी खीझ उतारने के लिए बोले जाएँ या किसी का अपमान करने के लिए या फिर व्यंग्य करने में लेकिन वे किसी का भला नहीं कर सकते। वे उनका क्या भला कर सकते हैं जिनके द्वारा वे बोले जाते हैं? रत्ती भर भी नहीं, लेशमात्र भी नहीं। अपशब्दों में सुख खोजने वाला व्यक्ति भ्रमलोक में भटका हुआ वह व्यक्ति है जो घृणित कृत्य में सुख मान बैठा है और अपनी बुद्धि को विषैली अफीम दे कर दूषित कर रहा है।
अपशब्दों ने क्या दिया क्यूँ तू उनको ढ़ोय? इत खोए सम्मान को उत अपनों को खोय -II प्रेम सारावलीII
जब यह प्रमाणित ही है कि अपशब्दों से किसी का भला नहीं हो सकता तो भी कुछ लोग उन्हें ढोए ही जाते हैं यह जानते हुए भी कि घृणित गालियों के बार-बार उच्चारण से स्वयं उनका ही मन मैला हो रहा है। अपशब्दों के प्रयोग की आदत एक दिन व्यक्ति को पीड़ा तथा अपमान की देहरी तक तो ले ही जाती है साथ ही अपनों से दूर भी कर देती है।
मनुष्य के व्यक्तिगत जीवन पर ही नहीं बल्कि पूरे मानव समाज पर अपशब्दों का नकारात्मक और हानिकारक प्रभाव पड़ा है। दूषित शब्दों का बार-बार प्रयोग हिंसात्मक और द्वेषपूर्ण अहंकार को बल देता है, समाज की दृष्टि से यह निंदनीय तो है ही, मनुष्य के अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए भी हानिकारक है। चरित्र निर्माण के लिए तो यह बिल्कुल अवांछनीय है। अपशब्दों और घृणित गालियों के दिनों-दिन बढ़ते जा रहे चलन को रोकने में सबसे बड़ा और अपेक्षित योगदान युवा ही दे सकते हैं। भले ही सभी की बौद्धिक क्षमता, भावना और इच्छाशक्ति एक जैसी नहीं होती लेकिन यदि अधिकांश युवाओं के द्वारा अपशब्दों को महत्व और प्रोत्साहन न दिया जाए इतना भी पर्याप्त होगा, इतना भी पर्याप्त होगा कि अपशब्दों को हास्य-व्यंग्य और आधुनिक दिखने हेतु सौन्दर्य प्रसाधन के रूप में या फिर कला-कौशल के रूप में न स्वीकारा जाए। धीरे-धीरे अपशब्द स्वतः ही मुख्यधारा से अलग होने लगेंगे।
वैसे तो मान-अपमान की भावना और अपशब्दों के प्रभाव से पार पाना कोई असाधारण कार्य नहीं हैं लेकिन प्रवृत्तियों के बहाव में बहते हुए मनुष्य के लिए ऐसा सहजता से कर पाना भी संभव नहीं हो पाता। व्यक्ति भले ही स्वयं किसी का अपमान न करे, अपशब्दों का प्रयोग न करे तो भी जब कोई अन्य व्यक्ति उसके साथ ऐसा व्यवहार करे तब स्वयं को संतुलित रखना और यथोचित व्यवहार करना भी आसान नहीं होता। ऐसा करना उसके लिए ही सहज होता है जो स्वयं के लिए बहुत सम्मान की भूख नहीं रखता और आत्मसम्मान की गरिमा के दायरे में ही अपना पूर्ण सम्मान देख लेता है। यह सहजता और सरलता हवा में ही प्रकट नहीं हो जाती बल्कि इसके लिए व्यक्ति के स्वभाव में पक्का आधार बनना आवश्यक होता है और ऐसा तभी होता है जब व्यक्ति अपनी प्रवृत्तियों के प्रति सजग और प्रतिबद्ध होता है, जब व्यक्ति प्रेम के महत्व को समझता है और प्रेम के भाव में ठहरता है।
दंभ-दिखावा हो जहाँ वहीं मान-अपमान प्रेम दृष्टि देखे सदा सबको एक समान -II प्रेम सारावली II
मान-अपमान के दृश्य वहीं बार-बार प्रकट होते हैं जहाँ दंभ और दिखावे को बहुत अधिक महत्व दे दिया जाता है, छोटी-छोटी बातों पर भी जब व्यक्ति के अहं को ठेस लगने लगे तो यह स्वाभिमान या आत्मसम्मान का विषय नहीं बल्कि मानसिकता की संकीर्णता और वैचारिक संतुलन का विषय है, सभी को प्रेम दृष्टि से देखने पर यह संतुलन स्वतः ही प्राप्त हो जाता है क्योंकि प्रेममय हो कर देखने से छोटे और बड़े का अवांछनीय भेद समाप्त हो जाता है, महत्व की दृष्टि से सभी एक समान दिखने लगते हैं।
प्रेमी मेटे अहम को वंचित पाले रोष प्रेमी अपने देखता वंचित जग के दोष -II प्रेम सारावली II
प्रेम की राह में अहंकार एक बाधा है यह समझते हुए प्रेमी व्यक्ति सबसे पहले अपने अहं को महत्वहीन कर लेता है, उसका महारथ ही इसमें है कि वह स्वयं के दोष खोज कर उन्हें मिटा देता है जबकि इसके विपरीत, प्रेम के महत्व को प्रत्यक्ष देख कर भी अनदेखा करने वाला वंचित व्यक्ति अपना अहं लिए हृदय में रोष पालने लगता है और अपने दोष न देख कर जगत में दोष ढूँढता है।
क्रोध से जब हो तुम्हारा सामना सूत्र ले उसको मेरा जा बाँधना क्रोध भोला है, मैं उसको थामता सम्मान हूँ मैं प्रेम हूँ -II मैं प्रेम हूँ II
प्रेमी के अनुभवों में प्रेम कहता है कि जब कभी तुम्हारा सामना किसी के या स्वयं के क्रोध से हो तो यह सूत्र याद रखना कि क्रोध भोला होता है जिसके आवेश के प्रभाव में थोड़ी देर के लिए कोई बुद्धिमान भी बच्चे की तरह अबोध बन जाता है, आवेश के उतरते ही व्यक्ति को अपने क्रोध पर ही पश्चाताप होता है, इसलिए क्रोध के क्षणों में क्रोध के भोलेपन को सम्मान देते हुए पहले उसे थामने का, शांत करने का प्रयास करना चाहिए, मैं सम्मान का वह सूत्र हूँ जो क्रोध को बाँध लेता है।
मान-अपमान और अपशब्दों के भँवर जाल में कोई औसत बुद्धि का व्यक्ति पड़ जाए तो वर्तमान समाज के लिए यह एक सामान्य सी बात ही है, समाज को उम्मीद तो बुद्धिमान व्यक्ति से होती है कि वह समाज को दिशा दे, उसे आगे ले जाए और मानवीय गुणों के नये मानक स्थापित करे। लेकिन यदि कोई उच्च शिक्षा प्राप्त बुद्धिमान ही यह कहे कि मुझे फुरसत ही कहाँ? जीवन की भागमभाग और उतार चढ़ाव इतना समय ही नहीं देती कि मानवीय मूल्यों के उत्थान पर चिंतन भी हो सके, फिर कुछ ही समय बाद वही बुद्धिमान अपशब्दों का सहारा लेते हुए यह भी कहे कि आजकल का माहौल कितना दूषित हो गया है! जरा सी बात पर लोग मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं, सहनशीलता और भाईचारा खत्म हो चला है, लोग समझना ही नहीं चाहते, तो उस बुद्धिमान को आप कितना बुद्धिमान कहेंगे? उसकी बुद्धिमत्ता को आप कितना सार्थक कहेंगे? स्नेहपूर्ण व्यवहार के लिए इतनी शिक्षा, बुद्धिमत्ता और समय की तो आवश्यकता ही नहीं, उसे तो सरल स्वभाव का कोई अनपढ़ भी सहजता से प्राप्त कर लेता है।
ज्ञान प्रकट कर जगत में ज्ञाता का हो मान
प्रेमी हो कर ही मिटे ज्ञानी का अभिमान
-II प्रेम सारावली II
किसी विषय का कोई ज्ञाता जब अपने ज्ञान को समाज में प्रकट करता है तो समाज उसके ज्ञान के कारण उसका सम्मान करता है। ज्ञानी और समाज दोनों के लिए ज्ञान ही मुख्य रूप से आदरणीय है लेकिन जब कोई ज्ञानी अपने ज्ञान को अपनी अस्मिता का ईंधन मान लेता है तो फिर उसके द्वारा स्वयं को मान-अपमान की भावना से दूर करना बहुत कठिन कार्य होता है क्योंकि उसका ज्ञान जिस मात्रा में उसके मिथ्याभिमान को, उसके अहं को पोषित करके प्रभावित करता है उतना प्रभावित तो वह किसी सामान्य व्यक्ति को भी नहीं करता, ऐसी परिस्थिति में भी जब कोई ज्ञानी व्यक्ति प्रेम को अपना लेता है तो प्रेमी स्वभाव होते ही उसका मिथ्याभिमान स्वयं मिट जाता है।
मेरी प्रेममय चेतना से यह प्रार्थना है कि प्रत्येक मानव को प्रेम का ऐसा अनुभव मिले कि उसे समय रहते प्रेम का महत्व समझ में आ जाए, मानव जीवन प्रेममय हो जाए I
सभी को अल्पज्ञानी का प्रणाम!